नये निर्णय और भारत का संघीय ढांचा | EDITORIAL by Rakesh Dubey

नई दिल्ली। सरकार और वित्त आयोग दोनों ही संविधान के निर्देशों में उलझ गये हैं | केंद्र सरकार के एक निर्णय के बाद पंद्रहवें वित्त आयोग के लिए शर्तें बदल दी गईं हैं। तर्क यह है कि यह ऐसा इसलिए किया गया जिससे रक्षा और आंतरिक सुरक्षा की आवश्यकताओं को नियमित व्यय से परे किया जा सके। आयोग का कार्यकाल बढ़ाते हुए मंत्रिमंडल ने अपने आदेश में यह बात शामिल की, “देश की रक्षा और आंतरिक सुरक्षा के लिए पर्याप्त, सुरक्षित और बेकार नहीं जाने वाली धनराशि की गंभीर चिंताओं को हल करने के लिए।“ इसे केंद्र द्वारा और अधिक राजकोषीय गुंजाइश तलाशने के प्रयास के रूप में देखा जा रहा है। संविधान के अनुच्छेद 280 के अनुसार आयोग को यह अधिकार प्राप्त है कि वह करों के वितरण का अंतिम निर्णय ले और अनुच्छेद 266 कहता है कि देश का समेकित कोष वह साझा पूल है जिससे तमाम राष्ट्रीय प्राथमिकताओं की पूर्ति की जाती है।विषय गंभीर है | 

वैसे रक्षा के लिए एक कोष को विशिष्ट रूप से अलग करने से संविधान के मूलभूत सिद्धांत का ही उल्लंघन होगा। इससे रक्षा व्यय, अन्य व्यय से पृथक हो जाएगा और केंद्र को यह अधिकार मिल जाएगा कि वह राज्यों के बजाय अपनी राजनीतिक प्राथमिकताओं के अनुरूप व्यय कर सके। एक ओर वैसे ही वस्तु एवं सेवा कर के कमजोर प्रदर्शन के चलते राजकोषीय संकट की स्थिति बनी हुई है, ऐसे समय इस मंशा को अच्छा तो कतई नहीं कहा जा सकता। इसके साथ यह भी सच है कि रक्षा आवंटन बीते कुछ वर्षों के दौरान चिंता का विषय बना हुआ है। सकल घरेलू उत्पाद के प्रतिशत के रूप में इसमें लगातार कमी आई है। इससे भी बुरी बात यह कि व्यय का बड़ा हिस्सा अन्य ताजा व्यय के साथ वेतन और पेंशन में चला जाता है। रक्षा क्षेत्र का पूंजीगत बजट बहुत कम है और इसका बड़ा हिस्सा तयशुदा खर्च मसलन पहले से तय खरीद आदि में लग जाता है।आधुनिकीकरण की नई पहल के लिए बहुत कम राशि बचती है।

यहाँ यह स्पष्ट रूप से समझ लेना चाहिए कि इस समस्या का हल संवैधानिक प्रावधानों से छेड़छाड़ करना और राज्यों के संसाधन कम करना नहीं है। केंद्रीय सूची के किसी भी हिस्से को राज्यों पर या समवर्ती सूची पर इस प्रकार तरजीह नहीं दी जानी चाहिए, ऐसा करना भारत संघ की भावना के विपरीत होगा । यह केंद्र सरकार पर निर्भर करता है कि वह तय करे कि वह अपने राजस्व में रक्षा के लिए कितना हिस्सा अलग करना चाहती है। अगर वह हाल के वर्षों में इस दिशा में पर्याप्त राशि नहीं दे पा रही है तो उसे अपने कुल व्यय का नए सिरे से आकलन करना चाहिए| बंटवारे के लिए उपलब्ध कुल करों में सेंध लगाने और वित्तीय रूप से अधिक जवाबदेह रहे राज्यों के हिस्से में कमी करने के उसके मंसूबे गलत हैं | इस बात के संकेत गलते जा रहे हैं | 

सरकार चाहे तो आंतरिक सुरक्षा पर होने वाले व्यय को भी इस सूची में शामिल कर सकती है। देश के अर्ध सैनिक बल के खर्च वित्तीय रुझानों के विपरीत रहे हैं, उनका आकार, संख्याबल और खर्च बढ़ा है। यह सिलसिला हमेशा नहीं चलता रह सकता, इस पर भी विचार जरूरी है । वैसे वाम चरमपंथ का खतरा भी अब बीते दशकों की तुलना में काफी कम हुआ है, लेकिन सीमापार और देश के भीतर आतंकवाद ने अपने पांव पसारे हैं । आयोग इस राजनीतिक खतरे को पहचाने तो बेहतर होग| केंद्र द्वारा आंतरिक सुरक्षा और रक्षा व्यय के लिए अलग कोष की मांग के कारण देश के संघीय ढांचे को नुकसान संभावित है। अगर ऐसा सुरक्षा केंद्रित फंड बनाया जाता है तो इसे राज्यों को दी जाने वाली राजस्व राशि में से कोई हिस्सेदारी नहीं मिलनी चाहिए। केंद्र को इसका भुगतान स्वयं करना चाहिए। इससे इतर किसी भी तरह का कदम संवैधानिक ढांचे को नुकसान पहुंचाएगा और इसके कारण आने वाले वर्षों में गंभीर समस्याएं पैदा हो सकती हैं। संविधान की मूल भावना के मद्देनजर इसका हल केंद्र सरकार और आयोग को मिलकर निकालना चाहिए |
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
संपर्क  9425022703        
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