नई दिल्ली। वर्तमान में देश और दुनिया के सामने दो संकट हैं। पर्यावरण विध्वंस और अंधाधुंध हिंसा। आतंक विश्व के हर कोने में फैल गया है, और दुनिया में ऐसा कोई कौना नहीं जो पर्यावरण विध्वंस को नहीं झेल रहा हो।आय की असमानता बढ़ती जा रही है, भूख और अकाल अपने फैलाव की चेतावनी देकर डरा रहे हैं। प्रकृति रुष्ट होकर अपना गुस्सा गर्मी, सर्दी, और बरसात के चक्र को बिगाड़ कर दिखा रही है। यह समझ से परे है इतनी बड़ी आपदा से निपटने का एक अकेले मनुष्य के पास क्या रास्ता है? एक मनुष्य के तौर पर हमारे लिए सबसे बड़ा सबक यह है कि हमें ढृढ़ रहना है और अपने ध्यान को नहीं भटकने देना है। ढृढ़ता का अर्थ देश-दुनिया को बदलने का काम एक फेसबुक पोस्ट और ट्वीट से नहीं होगा। देश- दुनिया में हो रहे गलत को सही करने मेंअपने बल बुद्धि का प्रयोग करना होगा।
इस विचार के साथ जॉन एफ. केनेडी याद आते हैं| उन्होंने एक बार कहा था कि “अगर हम शांतिपूर्ण क्रांति के तरीकों को असंभव बना देंगे, तो क्रांति के हिंसक तरीके अनिवार्य हो जाएंगे। एक न्यायपूर्ण समाज में, एक विकसित लोकतंत्र में, हम आम लोग उन नियमों को जानते हैं जिसके तहत हम खुद पर शासन करने का चुनाव करते हैं और हमारे पास दुनिया को बेहतर बनाने के लिए उन नियमों को बदलने की क्षमता है।” केनेडी के विचार को केंद्र में रखकर यदि भारत के संकटो पर विचार करें तो हमें उन नियमों के बदलाव के बारे में सोचना होगा जो भारत के लिए अभी छोटे संकट हैं,पर आने वाले दशक में ये बड़े हो जायेंगे। जैसे आज यहाँ-वहां होती “माब लिंचिग” शनै: शनै: सामुदायिक युद्ध में बदल जाएगी। जिस पर अभी सामुदायिक रूप विचार लगभग शून्य है और इसे हम सरकार काकाम मान बैठे हैं। इसमें शासक दल और प्रतिपक्ष की उत्प्रेरक भूमिका निबाहते हैं, जो साफ़ दिखती भी है। सरकार कोई भी हो उसकी भूमिका उतनी प्रभावी नहीं दिखती है, जितनी होना चाहिए।सामुदायिकसमूह इस विषय पर चिंतन के स्थान पर आमने-सामने भिड़ने को श्रेयस्कर समझ रहे हैं। वे प्रकृति के संकट से बड़ी अपनी सामुदायिक अस्मिता को मान बैठे हैं। भारत जून तक खूब तपा है और अब उसके कईराज्य बाढ़ से पीड़ित हैं, क्यों? इस पर किसी कोई चिंता नहीं है।उनका सरोकार सिर्फ उन विषयों पर है, जिससे उनकी सामुदायिक पहचान उभरती है, कब्जा साबित होता है और विश्व का ध्यान देश की बदहालीकी ओर आकर्षित होता है |
वर्तमान दुनिया यानि विकसित देशों में, कुछ विशेष तरह के नियम हैं, वे सामाजिक सुरक्षा और तकनीकी मानक एक साथ तय करते हैं जैसे अपने लिए सुरक्षित रिहायश और दफ्तर कैसे बनाएं? फैक्टरियों में मशीनों के साथ काम करने वाले मजदूरों को कैसे बचाएं? कीटनाशक दवाइयों का कैसे सही तरीके से इस्तेमाल करें? इसमें ऑटोमोबाइल की सुरक्षा से लेकर नदियों, पहाड़ों, वनस्पति, जंगल और समुद्रों के संरक्षण समेत कई मुद्दे शामिल हैं। हम 70 साल बाद इतिहास में वर्णित अवर्णित स्मारकों के लिए लड़ते हैं| मानवीय मूल्यों और मानवीय स्वास्थ्य के स्थान पर एक आस्था आधारित पशु के रक्षण के लिए वो सब करते है,जो मानवता के लिए कलंक बन जाता है। कई बार यह क्रिया की प्रतिक्रिया भी होती है। आस्था से छेड़खानी गलत है, ये संस्कार भी तो कोई नहीं दे रहा है। आस्था को सामुदायिक युद्ध का हथियार बनाने में कई लोगों की रूचि है। दुःख इस बात का है कि आस्था के विषय में पर्यावरण, जन संख्या नियन्त्रण और मानवीय मूल्य नहीं है। ये विषय स्कूल से लेकर कालेज तक पाठ्यक्रम में तो हैं, पर सार्वजनिक जीवन में इन्हें उतारने की शिक्षा देने वाले महापुरुषों का भारत भूमि में अकाल सा दिखता है।
हर पीढ़ी के पास एस मौका होता है। 70 बरस पहले की हमारी पूर्वज पीढ़ी के पास एक लक्ष्य आज़ादी था। अब शायद हम लक्ष्यविहीन है ।जी डी पी के आंकड़ों में बढ़ोत्तरी भौतिक लक्ष्य होता है। इससे देश अमीर हो सकता है, लेकिन समृद्ध नहीं। मानसिक संतोष और प्रसन्नता समृद्धि के अनिवार्य घटक हैं। जब हम ऊल-जुलूल विषय त्याग कर राष्ट्र निर्माण की बात सोचेंगे तो कुछ कदम आगे बढ़ेंगे। इंटरनेट ने हमारी दुनिया और देश को सच में एक बड़ा मौका दिया है| ज्ञान और कानून के राज तक वैश्विक पहुंच ही हमारी दुर्गम बाधाओं को पार करने में मदद करेगा जिन्हें आज हम झेल रहे हैं। लेकिन, यह तभी होगा जब हम सार्वजनिक कार्यों में जुटेंगे। जब हम सब चुनिंदा मसलों पर ध्यान लगाकर उन्हें लगातार और व्यवस्थित तरीके से अंजाम देते रहेंगे। एक बार मार्टिन लूथर किंग ने कहा है कि “बदलाव अनिवार्यता के चक्कों पर सवार होकर नहीं आता, यह निरंतर संघर्ष के जरिये आता है, हम दुनिया बदल सकते हैं, लेकिन इसके लिए हमें संघर्ष करना होगा”। सच में भारत बदला जा सकता है, अगर हमारे चिन्तन की दिशा सही हो।
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।