नई दिल्ली। प्रधानमंत्री कल जब लालकिले से अपने किये काम गिना रहे थे, तब देश के कर्नाटक, केरल, बंगाल, आंध्र प्रदेश, गुजरात, उत्तराखंड समेत कई राज्यों के इलाकों में बाढ़ और तेज बारिश का कहर जारी था. इन क्षेत्रों में मरनेवालों की संख्या सैकड़ों तक जा पहुंची है, प्रभावितों की संख्या लाखों में है तथा हजारों हेक्टेयर में लगी फसल तबाह हो चुकी है| इससे पहले बिहार और असम की बाढ़ में भी बहुत से लोग इसी कारण मारे जा चुके हैं| इसी मौसम में मुंबई में भी दो बार बाढ़ की स्थिति उत्पन्न हो चुकी है| क्या ऐसे यह पूछा जाना जरूरी नहीं है देश को प्राकृतिक आपदाओं से बचाने की कोई नीति है या नहीं ? यदि नहीं है तो कब बनेगी और यदि है तो उसका प्रभाव दिखता क्यों नहीं है ?
बाढ़ देश में पहली बार नहीं आई है | हर साल किसी न किसी हिस्से में इसका प्रकोप होता है | कौन बतायेगा कि साल-दर-साल आनेवाली बाढ़ को रोकने तथा जान-माल की रक्षा करने के ठोस उपाय क्यों नहीं हो रहे हैं? समय पर कार्यवाही के परिणाम भी सामने हैं | जैसे इसी साल मई में ओड़िशा में आये भयावह चक्रवात में प्रशासनिक तत्परता के कारण हजारों लोगों की जान बचायी गयी थी| जबकि यही वर्ष 1999 के चक्रवात में जहां 10 हजार से अधिक लोग मारे गये थे, इस बार 64 जानें गयीं| समय पूर्व चेतावनी और समय पर कार्यवाही प्राकृतिक आपदा का नुकसान कम कर सकती है | ऐसा वर्षाकाल में भी हो सकता हैं |
कोई बताये ऐसी तैयारी क्यों नहीं की जा सकती है? जबकि हमें मालूम है कि जलवायु परिवर्तन, दिशाविहीन विकास योजनाओं, अनियोजित शहरीकरण, नदी क्षेत्रों में अतिक्रमण आदि कारणों से बाढ़ और सूखे की बारंबारता निरंतर बढ़ती ही जा रही है| जल संरक्षण और प्रबंधन पर जोर देने की नवगठित जलशक्ति मंत्रालय की पहल स्वागतयोग्य है, परंतु प्राथमिकता की सूची में यह पीछे है| बाढ़ से निपटने के लिए राष्ट्रीय स्तर पर गाद हटाने और जल निकासी की व्यवस्था दुरुस्त होनी चाहिए, ताकि कटाव को रोका जा सके एवं बाढ़ नियंत्रण के उपाय ठीक से लागू हो सकें| तटबंध बनाना या उनकी ऊंचाई बढ़ाना कोई स्थायी समाधान नहीं है और यह बेहद खर्चीला भी है| कुछ कारकों के अलावा बाढ़ के कारण हर जगह लगभग समान हैं| जुलाई के दूसरे सप्ताह में 12 राज्यों में 60 प्रतिशत से अधिक अधिशेष बारिश हुई थी| यह मालूम होने पर नीति-निर्धारकों को जलवायु परिवर्तन को गंभीरता से लेना चाहिए था| यह सर्वविदित है कि डूब क्षेत्र में घनी बस्तियां, जंगलों का क्षरण, आबादी के घनत्व से अधिक गाद पैदा होना आदि कारण मानव-निर्मित हैं|
पडौसी देशों से आने वाले पानी के बारे में पड़ोसी देशों के साथ और राज्यों के बीच जल समझौतों एवं बांधों को लेकर नये सिरे से विचार-विमर्श होना भी जरूरी हो गया है | नदियों के लिए सरकारी धन आवंटन की विषमता में भी सुधार अपेक्षित है| अभी देश में 5254 बड़े बांध हैं तथा 447 निर्माणाधीन हैं| बांधों को लेकर विशेषज्ञों व पर्यावरणविदों की चिंताओं को अनसुना करना भी ठीक नहीं है|
सच में बाढ़ की त्रासदी लगातार गंभीर हो रही है| इसकी सघन समीक्षा कर दीर्घकालिक नीति बनानी चाहिए. इस साल बारिश से सूखे जलाशयों में पानी जमा होना सकारात्मक है| ऐसे में हर स्तर पर पानी संरक्षित करने पर ध्यान देना चाहिए और बाढ़ से बचाव के लिए ठोस कदम उठाना चाहिए|
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।