नई दिल्ली। देश का एक बड़ा हिस्सा बाढ़ की मार झेल रहा है । बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों के हवाई निरीक्षण हो रहे हैं | केंद्र और राज्य सरकारें भी क्षति के प्रारंभिक अनुमान के आधार पर प्रभावित राज्यों को आर्थिक मदद या उसका आश्वासन दे रही है| सवाल यह है कि क्या ऐसा पहली बार हो रहा है? हर साल ऐसी ही स्थितियों की पुनरावृत्ति से याद ताजा होती रहती हैं।
गुजरते वक्त के साथ बाढ़ की विभीषिका बढ़ती जा रही है, उसके कारण और स्रोत भी कुछ बदले हैं, लेकिन इसे प्रकृति का प्रकोप भर बताना तो अपनी जिम्मेदारी और जवाबदेही से मुंह चुराने का आपराधिक कृत्य ही है। क्या इसके लिए बारिश और नदी ही दोषी हैं, और इस समस्या का वाकई कोई समाधान नहीं है? वर्षा ऋतु में बढ़ने वाला जल प्रवाह बाढ़ का पुराना और परंपरागत कारण है। नदियों की सुरक्षा-सफाई तथा प्रभावित होने वाले क्षेत्रों में एहतियाती कदम उठाकर इसका भी स्थायी समाधान न सही, होने वाली जानमाल की क्षति को न्यूनतम अवश्य ही किया जा सकता है | यह काम सरकार के संबंधित विभागों का है, पर उनके लिए बाढ़ हो या सूखा-समस्या नहीं, बल्कि ऐसा भारी-भरकम बोनस है, जिसकी आस वे हमेशा लगाये रहते हैं।
बाढ़ राहत और पुनर्वास के नाम पर जो मुआवजा सरकार से मंजूर होता है, वह राजनेताओं से लेकर सरकारी तंत्र में ऊपर से नीचे तक बंटता है। अब ऐसे में उसी तंत्र से यह अपेक्षा कैसे की जा सकती है कि वह खुद ही अपनी ऊपरी आय के स्रोत बंद कर ले? देश के कई हिस्सों में हर साल आने वाली बाढ़ के प्रकोप से निपटने के लिए उपायों के अध्ययन के लिए समितियां भी बनती रही हैं, जिन्होंने देर-सवेर अपनी रिपोर्ट भी दी है, पर याद नहीं पड़ता कि किसी रिपोर्ट को सार्वजनिक कर उस पर बहस करायी गयी हो और अमल किया गया हो।
एक ओर राजनीतिक-सरकारी तंत्र तो दूसरी ओर मनुष्य का बेलगाम स्वार्थ उसके लिए ही आत्मघाती साबित हो रहा है। वृक्षों की अंधाधुंध कटाई और अवैध खनन के मूल में राजनीतिक एवं सरकारी तंत्र का भ्रष्टाचार तो है ही, व्यक्तिगत और सामूहिक रूप से इनसान और समाज भी लालच में प्रकृति से खिलवाड़ करते हुए विनाश को ही आमंत्रित कर रहा है। सरकारी रिपोर्ट भले ही वन आच्छादित क्षेत्र में पिछले सालो में एक प्रतिशत वृद्धि का दावा करती हो, पर एक स्वतंत्र अंतर्राष्ट्रीय संस्था वर्ल्ड रिसोर्सेज इंस्टीट्यूट की रिपोर्ट बताती है की 2001 से 2018 के बीच वृक्ष आच्छादित क्षेत्र में 10 लाख हेक्टेयर से भी ज्यादा कमी आयी है |
एक अन्य स्वतंत्र अंतर्राष्ट्रीय संस्था इंटरनेशनल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज की रिपोर्ट तो और भी भयावह भविष्य की तस्वीर खींचती है। धरती का लगातार बढ़ता तापमान जलवायु परिवर्तन के परिणामों को खतरनाक स्तर पर ले जा रहा है, जिसका परिणाम विश्व में खाद्यान्न संकट के रूप में सामने आ सकता है। एक ओर वृक्षों की अंधाधुंध कटाई जारी है, तो दूसरी ओर अवैध खनन राजनीतिक एवं सरकारी तंत्र की अवैध कमाई का बड़ा स्रोत बनकर उभरा है। नदियों के तटों से लेकर पहाड़ों तक हर जगह खनन माफिया का कब्जा है, जिसके सिर पर उसी राजनीतिक-सरकारी तंत्र का हाथ रहता है, जिस पर अवैध खनन रोकने की संवैधानिक-कानूनी जिम्मेदारी-जवाबदेही है।
मध्यप्रदेश के एक मंत्री गोविन्द सिंह तो सरेआम अवैध खनन न रोक पाने का प्रायश्चित कर रहे हैं | उनके आरोपों की जद में राजनीति और प्रशासन का कुत्सित जोड़ है | पिछले शासन में अवैध खनन का जो खुला खेल मध्यप्रदेशमें हुआ, वो खेल अब जारी ही नहीं पूरे शवाब पर है |अवैध खनन और अंधाधुंध वृक्ष कटान का परिणाम अब जलवायु परिवर्तन के परिणामों के रूप में सामने आने लगा है। अब कम समय में ज्यादा बारिश होने लगी है, जिसके प्रवाह को संभाल पाने में जल निकासी तंत्र और अवैध कब्जे से सिकुड़ते गये पाट वाली नदियां समर्थ नहीं हैं। जाहिर है, दोनों के लिए ही सरकारी तंत्र और समाज का आत्मघाती लालच जिम्मेदार है।
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।