भोपाल। कानून के निर्माताओं और कानून के रखवालों ने इतनी बारीक़ लकीरें खिचीं हैं कि मध्यप्रदेश में चल रही “हनी ट्रेप” की कहानी जो आज सनसनीखेज और मनोरंजक लग रही है, कल शायद कानून की चौखट पर खरी न उतरे | पूरी कहानी “दो बालिग लोगों के बीच आपसी रजामंदी से जिस्मानी ताल्लुकात” सिद्ध कर दिए जाने की सम्भावना अधिक है | कहानी का यह भाग उतना महत्वपूर्ण नहीं है, जितना गंभीर, घृणास्पद, भ्रष्ट और अनैतिक पर्दे के पीछे छिपा है | क्षणिक रतिसुख ने प्रदेश और स्थानीय संस्थाओं को करोड़ों का चूना लगा दिया है | रंभा, उर्वशी, मेनका तो सलाखों के पीछे हैं, उनके साथ आनन्द भोगने वाले अपने रसूख और धन से वो सब मिटा रहे हैं, जो क्षणिक रतिसुख के एवज में दिया गया है | इस लाभ को सरकारी खजानों से उलीचा गया है, नियमों को ताक पर रख कर |
“हनी ट्रेप” की सुन्दरी भोपाल के बड़े साहबों के क्लब से बहिष्कृत की गई है | इस क्लब में सुरापान के ध्युतक्रीड़ा की भी व्यवस्था है | ध्युत का जो प्रकार पेड़ के नीचे आम आदमी द्वारा खेलना अपराध है, वो यहाँ मनोरंजन का प्रकार है | अन्य खेल भी होते हैं, जो इनडोर गेम्स कहलाते हैं | इनके उपकरण भी मौजूद हैं, लेकिन इन दिनों जो खेल सबसे ज्यादा जोरों पर है, उसके उपकरण सरकार के दफ्तर में होते हैं, भुगतान किसी होटल में और आदेश की कॉपी क्लब में मिल जाती है | सवाल यह है कि वे सारे महानुभाव जो देश की प्रशासनिक और पुलिस सेवा के वर्तमान, भूतपूर्व और अभूतपूर्व अधिकारी हैं या रहे हैं, इसे सूंघ क्यों नहीं पाए ? सरकार को इनमे से ही एक टीम गठित करना चाहिए अपने नुकसान के आकलन के लिए |
वैसे इस अनूठे क्लब की कल्पना का विचार ई. पू. ७ वीं शताब्दी के यूनानी राजनेता सोलोन के संविधान से जुडा है। यूनानियों के प्राचीन उपासनागृह आधुनिक पाश्चात्य क्लबों के जनक माने जाते हैं। उन दिनों यूनान के विभिन्न राजनीतिक दलों के लोगों ने साथ मिल बैठकर वादविवाद, मंत्रणा, परामर्श इत्यादि करने के लिये जो गोष्ठियाँ स्थापित की थीं, वे भी इसी प्रकार की संस्थाएँ थीं। सहभोज के लिये एक ही मेज पर एकत्र होने की प्राचीन यूरोपीय परिपाटी आधुनिक क्लबों की निकटम पूर्वज प्रतीत होती हैं।
अंग्रेजी शासन के साथ ही भारत में भी आधुनिक क्लब परंपरा स्थापित हुई। गोरे साहबों ने अपने अपने क्लब खोले, जिनमे भारतीयों का प्रवेश वर्जित था। अधगोरों ने भी ऐसे ही क्लब खोले। भारतीय उच्च अधिकारियों ने भी फिर अपने क्लब खोले। प्रत्येक जिले के सदर मुकाम में इस प्रकार क्लब स्थापित हुए। गोरे क्लबों में ‘जीमखाना क्लब’ भारत के सभी बड़े बड़े नगरों में स्थापित हुआ। छावनियों में भी काले गोरे फौजियों के अलग अलग क्लब बने। इन सभी क्लबों में ताश के खेल ‘रमी’, ‘ब्रिज’ और ‘पोकर’ जुए की तरह खेले जाते हैं। भारतीय अफसर वर्ग में ‘ब्रिज’ खेल की लत डालनेवाले ये ही क्लब हैं। इन सभी क्लबों में मदिरालय भी होता है जिसमें विविध प्रकार की विदेशी शराबें मिलती हैं। बड़े औद्योगिक घरानों की तर्ज स्थानीय व्यापारियों और उनके दलालों को इन क्लबों में सदस्यता मिली। भोपाल के बड़े साहबों के क्लब में प्रवेश की एक श्रेणी “ख़िलाड़ी” भी है | बहिष्कृत लोग कौन से खेल में प्रवीण हैं, जग जाहिर हो गया है |
वैसे कुछ क्लब देश में खेलों के अखिल भारतीय महत्ता के क्लब हैं, बंबई का ‘क्रिकेट क्लब ऑव इंडिया’, दिल्ली का ‘नैशनल स्पोर्ट्स क्लब ऑव इंडिया’ और कलकत्ते का ‘मोहन बागान’, जो फुटबाल के खिलाड़ियों का विशिष्ट क्लब है। भोपाल के बड़े साहबों के क्लब के नाम ऐसा कोई कीर्तिमान नहीं है | कीर्तिमान स्थापित हो सकता है, अगर इस क्लब के सदस्य प्रदेश के हित में इस बात की जाँच कर, एक रिपोर्ट बनाएं कि क्षणिक रतिसुख से मिले ठेकों और अन्य लाभों से प्रदेश को कितना नुकसान पहुंचा है | साथ ही अपने उन खिलाडी और गैर पेशेवर सदस्यों की भूमिका क्या है और उनके प्रवेश का हिमायती कौन है | लाखों की फ़ीस देकर कोई यूँ ही सदस्य नहीं बनता है |
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।