नई दिल्ली। कुछ दिन पहले हुए सर्वे में यह पता चला कि देश के 77 फीसदी युवा अपना आदर्श गांधी को मानते हैं। इसका अर्थ यह है कि देश के अधिकांश युवा गांधी को अपना रोल मॉडल मान रहे हैं। माने क्यों नहीं, 70 बरस बाद भी देश में ऐसा कोई दूसरा रोल मॉडल नहीं दिखता जिसके पीछे देश चले | गाँधी के बाद लालबहादुर शास्त्री में गाँधी सी चमक थी, पर धमक नहीं थी | उसके बाद जो भी आये, गये और हैं उनमें से एक-दो को छोड़ दे तो कोई भी वैसा नहीं है |
गाँधी के आलोचक भी इस बात से इंकार नहीं कर सकते की गाँधी ने ही भारतीयों “सविनय अवज्ञा” की दीक्षा दी जिससे हम भारतीय आज दुनिया में सर उठाते हैं | दुर्भाग्य 70 साल में देश में अच्छा- बुरा सब कुछ हुआ, पर वो नहीं हुआ जो गाँधी चाहते थे | एक इस सवाल का देश की सारी सरकारों से पूछना होगा जो अब तक गांधी को नकारती आईं हैं| महात्मा गांधी ने जिस ‘हिन्द स्वराज’ का खाका दिया था, उस पर हमारे नेतृत्वकर्ता हमेशा चलने से क्यों कतराते रहे? गांधी लघु उद्योग और स्वरोजगार से देश के हर व्यक्ति को काम देना चाहते थे। जबकि हमारे पिछले- अगले और वर्तमान नेतृत्व अपनी आर्थिक नीतियों से युवाओं को बेरोजगारी के दलदल में धकेलते रहे हैं। यही देश का भाग्य बनता जा रहा है |
सही मायने में आजादी के बाद जो थोडा लघु उद्योग फैला वह अंतिम सांसें गिन रहा है। बड़े पूंजीपति घरानों के चंगुल में तो देश बहुत पहले जकड़ चुका था। अब विदेशी पूंजी के हवाले हमारे खुदरा और घरेलू रोजगारों को भी सौंपा जा रहा है। कुल मिलाकर हम ऐसी अर्थ व्यवस्था के हवाले कर दिए गये हैं जिसे महात्मा गांधी गरीब पैदा करने वाली व्यवस्था बताते थे।
बावजूद इस अनर्थ अर्थतंत्र में महात्मा गांधी ही एकमात्र विचार हैं जिन्हें अपनाकर देश और समाज को बचाया जा सकता है। यह सोचने की बात है कि गांधी जी को राष्ट्रपिता क्यों कहा गया? दरअसल, महात्मा गांधी पूरे विश्व के लिए सोचते थे। वैचारिक दृढ़ता और हर इंसान की फिक्र ने उन्हें स्वतः ही राष्ट्रपिता बना दिया। उनके जीवन में कुछ भी व्यक्तिगत नहीं था, उनका पूरा जीवन एक संयुक्त परिवार था। जिसमें उनके लिए भी जगह थी जो उनसे घोर असहमत थे। भारत में विदेशी कपड़ों की होली जलाने के लिए प्रेरित करनेवाले महात्मा गाँधी जब गोलमेज सम्मेलन में हिस्सा लेने के लिए ब्रिटेन गये , तो मौका मिलते ही वे लंकाशायर के कपड़े कारखानों के मजदूरों के बीच जा पहुंचे | जो भारत में चल रहे स्वदेशी आंदोलन के कारण बेकार हो रहे थे और उन्हें समझाने की कोशिश की कि हमें तो आपसे प्रेम ही है, पर हम नहीं चाहते कि इंग्लैंड की मिलों में बनने वाले कपड़े भारत के लाखों जुलाहों को बेरोजगार कर दें और हमारी आर्थिक आत्मिनर्भरता को नष्ट करने का औजार बने। ऐसी अपेक्षा वर्तमान नेतृत्व से व्यर्थ है | अब तो सर्वहारा की जगह सर्वसमर्थ के कसीदे पढने की परम्परा बन रही है |
एक बात यहाँ यह भी समझना जरूरी है कि महात्मा गांधी कोई आध्यात्मिक गुरु नहीं थे कि जो आत्मिक शांति का कोई मन्त्र दे जाते जिससे परलोक सुधर जाता या जायेगा | उन्होंने कई बार कहा था कि “मैं दोबारा जन्म लेना नहीं चाहता-मुझे तो मोक्ष चाहिए” लेकिन उनका मोक्ष किसी आध्यात्मिक साधना में नहीं था। दरअसल, वे जिसे आध्यात्मिक कहा करते थे, वह पूरी तरह से इहलौकिक था। गांधी जी को इस संसार की चिंताएं ही सताती थीं। उनका पूरा जीवन इन चिंताओं से लड़ते हुए ही गुजरा। भारत ने उनके चिन्तन को संवारा नहीं, अब नई पीढ़ी सोच रही है | अच्छा है |
वस्तुत: सत्य, अहिंसा, प्रेम, सादगी जैसे विचारों की पूंजी पूरी दुनिया के लिए प्रासंगिक है। ऐसे में आधुनिक तकनीकी उपाधियों को हासिल करके वैश्विक अर्थव्यवस्था का शिकार और एकल जीवन की ओर उन्मुख आज की युवा पीढ़ी महात्मा गांधी से अगर कुछ सीख सकती है तो वह है- किसी भी ऐसी चीज का इस्तेमाल करना अनैतिक है जो जनसाधारण को सुलभ नहीं कराई जा सकती। इसका सार तत्व है कि तुम तब तक सुखी नहीं हो सकते जब तक तुम्हारा समाज सुखी नहीं हो जाता।
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।