न्यायिक जगत में एक एक सर्वमान्य मुहावरा है जिसका हिंदी अनुवाद लगभग यूँ होता है “देरी से दिया गया न्याय,न्याय नहीं होता|” भोपाल तो न्याय नहीं उच्च न्यायालय की पीठ की मांग, मध्यप्रदेश बनने से अब तक लगातार करता आ रहा है | कभी सरकार भोपाल के वकीलों की बात सुनकर कुछ करती है तो कभी जबलपुर के वकीलों की बात सुनकर पीछे हट जाती है | सरकार कोई भी हो इस मामले में कुछ करती है तो सिर्फ कदम ताल | कदम ताल, एक स्थान पर खड़े होकर, चलने का झूठ-मूठ प्रदर्शन होता है | १९५६ से यही हो रहा है | इस मांग को अब तक पूरी न होने के पीछे राजनीति है | इस राजनीति का सबसे अभद्र प्रदर्शन भाजपा की एक सरकार में हुआ था | जब भाजपा प्रतिपक्ष में थी, तो विधानसभा में इस विषय की पैरवी करने का दम भरती थी | विधानसभा में इस विषय का दम भरने वाले महापुरुष जब सिंहासन पर आरूढ़ हुए तो वकीलों के प्रतिनिधि मंडल से यह कह कर चलते बने कि “ क्या गली-गली में हाईकोर्ट की बेंच खोल दें ?” उनका जो भी नजरिया रहा हो भोपाल कोई गली- कूचा नहीं है, १९५६ से प्रदेश की राजधानी है | संविधान का अनुच्छेद २१४ हर राज्य में एक उच्च न्यायालय का पक्षधर है | उच्च न्यायलय के मुख्य न्यायाधिपति, राज्य के मुख्यमंत्री, की संयुक्त सिफारिश पर केंद सरकार इस निर्णय को लेती है, ऐसी परम्परा है |
मध्यप्रदेश में १५ साल पहले राजनीति “हम भी खुश –तुम भी खुश” जैसी परम्परा का उदय हुआ था, यह परम्परा पिछले ९ महीने से फिर परवान चढ़ रही है | हनी ट्रेप में ३ बार जाँच दल का बदलना उस परम्परा के पल्लवित होने की निशानी है | भोपाल में हाईकोर्ट बेंच की मांग पर यह सौजन्य क्यों नहीं बरता जा सकता ? एक सवाल है राज्य के उन लोगों से जो अपने को विकास पुरुष कहलाने में गर्व महसूस करते हैं | इस मांग पर राजनीति न कर, श्रेय का समर्पण केंद्र सरकार को करें तो बहुत कुछ सुधर सकता है | वकीलों में उभय पक्ष के नुमाईंदे है, अपने अपने राजनीतिक आकाओं से पैरवी करने की बात जोर देकर कहना चाहिए |
अभी क्या हो सकता है ? आप ये सवाल मुझसे पूछने के हकदार हैं | खबर है प्रदेश के एक बड़े नेता अपनी गलती का परिमार्जन करने को तैयार है और जल्दी ही राज्य प्रशासनिक न्यायाधिकरण पुन: भोपाल में काम करने लगेगा | तिथि और अवसर अभी तय नहीं है | राजनीति हमेशा ऐसे अवसर और तिथि लाभ – हानि का गणित लगा कर घोषित करती है | मौके की तलाश है | लेकिन, यह इस मांग का पूरा हल नहीं है, ये तो खबर है | मेरा सुझाव अभी बाकी है | इस सुझाव का पूरा श्रेय मैं लेना भी नहीं चाहता | इसमें भोपाल के एक वरिष्ठ वकील और न्यायमूर्ति का परामर्श भी शामिल है | न्यायालय और वो भी उच्च न्यायालय के मामले में लिखने से पहले मैंने उनसे परामर्श किया | सुझाव यह है कि भोपाल में “सर्किट बेंच” तो फौरन खोली जा सकती है, जिसके लिए मुख्य न्यायधिपति मध्यप्रदेश और मुख्यमंत्री मध्यप्रदेश की आपसी बातचीत और सहमति ही जरूरी है | तो देर क्यों ?
सर्किट बेंच खुलने के फायदे बहुत से हैं | पहला- उच्च न्यायालय में मुकदमे के नाम पर राज्य के खजाने से प्रतिमाह खर्च होने वाला जन धन बचेगा | दूसरा – मुकदमों और अपील त्वरित तरीके से सुने जायेंगे | तीसरा- भोपाल जिला बार में काम करने वाले नवागत वकील साहबों का स्तर कुछ सुधरेगा | राज्य प्रशासनिक न्यायाधिकरण के वापिसी से भी इन तीनों स्थिति में परिवर्तन आएगा |मध्यप्रदेश बनने के पहले भोपाल राज्य का उच्च न्यायलय भोपाल में ही था | तब न्यायाधीश जुडिशियल कमिश्नर पदनाम से सम्बोधित होते थे | जिला बनने के बाद भी जिला एवं सत्र न्यायाधीश सर्किट बेंच की भांति पडौसी जिलों में सुनवाई करने जाते थे | उच्च न्यायालय की बेंच हो या सर्किट बेंच भोपाल के नागरिकों से ज्यादा सरकार की जरूरत सरकार को सोचना चाहिये | जबलपुर में उच्च न्यायालय क्यों बना और भोपाल राजधानी क्यों बनी ? इस पर फिर कभी |
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।