जरा सोचिये 30 साल बाद देश में बुजुर्गों की संख्या और उनकी दैनन्दिनी समस्याएँ बढती जाएगी | अगर आज से हल नहीं सोचा गया तो तब के कर्मशील युवा हाथों को अपने काम से से ज्यादा अपने बुजर्गों की देखभाल पर समय खर्च करना होगा |आंकड़े बताते हैं, हमारे देश में कामकाजी आबादी की बड़ी तादाद होने के साथ बुजुर्गों की भी संख्या में बढ़ोतरी हो रही है| अभी भारत की जनसंख्या की औसत आयु २८ साल है, जबकि चीन में यह ३७ साल है| आकलनों की मानें, तो २०५० तक सबसे अधिक कामकाजी लोग भारत में होंगे| चिंता का विषय यह है कि उस समय तक दुनिया की २० प्रतिशत बुजुर्ग आबादी भी भारतीय होगी| अभी यह आंकड़ा ८.५ प्रतिशत है| ऐसे लोगों की मौजूदा आबादी अभी साढ़े दस करोड़ है| अभी तक तो बुजुर्गों की दो श्रेणियां हैं |पहली – ६० वर्ष से अधिक उम्र के बुजुर्ग और दूसरे ८० वर्ष से अधिक उम्र के लोग | जो बहुत बुजुर्ग माने जाते हैं|
एक सदी पहले श्रम बाजार की आर्थिकी के अनुरूप हुए इस श्रेणीकरण समय के बदलने के साथ सवाल भी खड़े हो रहे हैं, क्योंकि स्वास्थ्य, खान-पान और सक्रियता से बुजुर्गों के जीवन में सकारात्मक बदलाव हुए हैं| बुजुर्गों की बड़ी संख्या और उत्पादकता के स्तर के बीच का गणित भी बदल गया है| लेकिन “बिना खतरे के जन्म” और “सम्मान के साथ मृत्यु” विकासशील और निर्धन देशों के लिए अब भी एक अधूरा सपना है| हमारे देश में करीब ७५ प्रतिशत बुजुर्ग आबादी ग्रामीण क्षेत्रों में है और इसका एक बड़ा हिस्सा गरीबी के चंगुल में है| इनमें से अधिकांश लोग योजना होते हुए वृद्धावस्था पेंशन से महरूम हैं | ऐसे लोग या तो घरों में हैं, या अल्प सुविधा वाले वृद्धावस्था गृह में | अधिकांश वृद्धावस्था गृह भी सिर्फ उन्हीं लोगों को आसरा देते हैं जिनकी खुद की कोई पेंशन इत्यादि से आय होती है या उनकी सन्तान एक बड़ी राशि के साथ हर माह कुछ राशि दान के नाम पर देते हों |
इसका एक और दर्दनाक पहलू यह है कि इन बुजुर्गों में ५५ प्रतिशत महिलाएं हैं, जिनके लिए स्वास्थ्य सेवाओं और देख-भाल की सुविधाओं को हासिल कर पाना बेहद मुश्किल होता है| अस्पतालों में औसतन एक हजार लोगों के लिए एक से भी कम बिस्तर है, जबकि विश्व स्वास्थ्य संगठन के मानकों के मुताबिक यह अनुपात कम-से-कम ३.५ बिस्तरों का होना चाहिए| ऐसा ही अभाव स्वास्थ्य केंद्रों और चिकित्सकों व संबंधित कर्मियों के मामलों में है| बुढ़ापे में शारीरिक अक्षमता और देखने, सुनने व बोलने में परेशानी जैसी सामान्य समस्याओं के साथ गंभीर बीमारियों की मुश्किलें भी होती हैं, ऐसे में लगातार देख-भाल के साथ प्रशिक्षित स्वास्थ्यकर्मियों की जरूरत होती है|
अपने स्थान से इतर रोजगार और परिवारों के बिखराव से भी पलायन जैसी परेशानी बढ़ रही है| कम आमदनी, बचत और पेंशन ने भी अधिक उम्र के बहुत लोगों को लाचार बना दिया है| ऐसे में बुजुर्गों के लिए घर पर ही जरूरी देख-रेख उपलब्ध कराने का विकल्प होना चाहिए | सरकार चाहे तो कर सकती है कि घर पर ही जाकर स्वास्थ्यकर्मी बुजुर्गों का ख्याल रखें, तो इसमें खर्च भी कम होगा और परिवार को भी परेशानी भी नहीं होगी | चीन इस मामले में अगुआ है | चीन में इस पहलू पर बहुत जोर दिया जा रहा है| इससे इस संदर्भ में परिवार द्वारा खर्च को वहन करने की क्षमता तथा सरकार की पहलों की बड़ी भूमिका दिखती है | भारत के लिए ये बहुत आसान नहीं, तो बहुत मुश्किल भी नहीं है | आशा दीदी और ग्रामीण स्वास्थ्य कर्मी इस काम को भलीभांति कर सकते हैं |
इसके अतिरिक्त यदि जन्म से ही लोगों, खासकर महिलाओं के स्वास्थ्य और स्वास्थ्य सेवाओं को दुरुस्त रखा जाये, तो बुढ़ापे में चिंता कम हो सकती है| प्राथमिक स्तर पर चिकित्सा सुविधाओं को बढ़ाकर ऐसा किया जा सकता है| बुजुर्गों के लिए प्रशिक्षित लोगों को तैयार कर रोजगार के मौके भी बनाये जा सकते हैं| हमारे बड़े-बुजुर्गों को उनकी उम्र के आखिरी पड़ाव पर एक अच्छा जीवन देना हम सबका व्यक्तिगत और सामूहिक कर्तव्य है| सरकार थोड़ी पहल करे, समाज आगे आ जायेगा |
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।