नई दिल्ली। एक तरफ मध्यप्रदेश सरकार प्रदेश में नये उद्ध्योगों को आने का न्यौतादे रही है, वहीँ वो कपास की सर्वोत्तम किस्म कहे जाने वाली किस्म “स्टेपल फाइबर”(Staple fiber) के खेतों को सरदार सरोवर बांध की डूब में आने से बचाने में असफल सिद्ध हुई है। इस डूब से आगाह नर्मदा बचाओ आन्दोलन (Save Narmada Campaign) तो कर ही रहा था साथ ही आन्दोलन और सरकार के बीच सेतु बने वे वार्ताकार भी इस तथ्य से परिचित थे कि यह बेशकीमती उत्पाद देने वाली भूमि नष्ट हो रही है। “स्टेपल फाइबर” पैदा करने वाली इन गावों की जमीन साल में 200-250 करोड़ का यह उत्पाद पैदा करती है। लगता है सरकार ने अपने भेजे वार्ताकारों की बात को भी नहीं माना। सरकार से जायज बात भी मनवा सकें, ऐसे वार्ताकार दुनिया में कम है। भारत में तो वार्ताकारों का उपयोग “सिंगल यूज” ही होता है।
वैसे कपास और वस्त्र जैसे उत्पादों पर, जिनका वैश्विक बाजारों (Global markets) में स्वतंत्र रूप से कारोबार नहीं हो रहा, अंतरराष्ट्रीय व्यापार नियम उचित रूप से लागू नहीं हैं। फिर भी, इस पर आज तक ध्यान नहीं दिया गया है। एक किलो कपास उगाने में भारत में 0.95 डॉलर (लगभग 67 रुपये) खर्च आता है, जो दुनिया में सबसे सस्ता है, स्टेपल फाईबर का उत्पादन और बिक्री मूल्य हमेशा ज्यादा रहा है। लिहाजा तर्क तो यही कहता है कि दुनिया के कपास बाजार में मध्यप्रदेश का बोलबाला होना चाहिए था। ऐसा हो नहीं सका। इस राह में व्यापार नियमों की बेड़ियां थी और हैं| अब तो नौ मन तेल ही नहीं रहा तो राधा कैसे नाचे।
आज जब मैं डूब की बात कर रहा हूँ, लगभग 150 से अधिक देश विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) के बैनर तले जिनेवा में अंतरराष्ट्रीय कपड़ा व्यापार (International textile trade) पर चर्चा कर रहे हैं। यहां बीती 7 अक्तूबर को विश्व कपास दिवस मनाया गया था, जो तथाकथित ‘कॉटन-4 ’ (बेनिन, बुर्किना फासो, चाड और माली का समूह) की एक पहल थी।इसे डब्ल्यूटीओ और संयुक्त राष्ट्र के कुछ संगठनों का समर्थन हासिल है। अमीर देशों ने अपनी मिलों की रक्षा के लिए छह दशकों से भी अधिक समय से भारत जैसे विकासशील देशों से आयात का कोटा तय कर रखा है। यह समझौता टैरिफ और व्यापार पर आम करार (गैट) के मुक्त-व्यापार नियमों से अलग है। वैश्विक बाजारों में जरूरतों को देखते हुए भारत का यह मानना था कि यदि वह पेटेंट जैसे नए मसलों पर अमेरिका की बात मान लेता है, तो कपड़ा और अन्य निर्यात पर उसे कुछ राहत मिल सकती है। मगर ऐसा कुछ नहीं हुआ।
जिनेवा बैठक का जो खाका सामने आया है, उसमें यह साफ नजर आता है कि व्यापार के प्रबंधन में शक्तिशाली देशों को तवज्जो दी गई और उसी छल-बल का इस्तेमाल किया गया, जिसके द्वारा विदेशी उत्पादों व सेवाओं पर गरीब देशों की स्थाई निर्भरता सुनिश्चित की जाती है। उपनिवेशीकरण के नियमों पर बेशक अब चर्चा हो रही है, लेकिन लगता यही है कि विकासशील देशों के साथ बस स्वांग रचाया जा रहा है। भारत ने यहां अच्छा भरोसा दिखाया, लेकिन व्यापार वार्ता में शायद ही कभी यह भरोसा कारगर साबित होता है। नर्मदा घाटी में भी सरकार ने ऐसा भरोसा तोडकर अपना भारी नुकसान कर लिया है। जिस स्टेपल फाइबर की धूम देश और विदेश में थी वो डूब में आ गया है। आगे पैदा होगा या नहीं, इस बारे में कोई अधिकारिक जानकारी नहीं है।
दरअसल सरकारों की तरफ से किसानों को मिलने वाली रियायत और समर्थन बांटने एक नीति है। जिसमे सरकार किसानों और गैर किसानों के पुनर्वास के बारे में कहीं कुछ तो कहीं कुछ कह देती है। सुप्रीम कोर्ट में दिये गये गलत हलफनामे पर वर्तमान सरकार चुप है। यह बात अलग है हलफनामा पिछली सरकार ने दिया था, पर जानकारी में आने के बाद इस सरकार का चुप्पी साधना भी एक बड़ा प्रश्न चिन्ह है। कपास उगाने वाले भारतीय किसानों को पश्चिम ( खासतौर से अमेरिका ) के किसानों की तरह कोई सब्सिडी नहीं मिलती। इस कारण उनके लिए विदेश के बड़े बाजारों में अपनी पकड़ बनाना लगभग नामुमकिन हो जाता है। भारत का इतिहास और अर्थशास्त्र उनकी स्थिति को और बदतर बना देते हैं। ऐसे में जिसकी जमीन उसकी आँखों के सामने डूब जाये वो क्या करें ? कपास और खादी भारत के स्वतंत्रता संग्राम की आत्मा से जुडे रहे हैं। इस डूब के किस्से कब खत्म होंगे ? किसान के आंसू कब तक बहते रहेंगे ?सरकार बता सकती थी, सरकार चुप है।
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।