देश में पसरता विदेशी शिक्षा का व्यापार | EDITORIAL by Rakesh Dubey

नई दिल्ली। भविष्य में भारत समेत दुनिया भर में रोजगार पाने के तौर- तरीके पूरी तरह बदल जायेंगे। भविष्य में ये केवल अंग्रेजी बोलने जैसे संप्रेषण कौशल और क्लर्क जैसे पुनरावृत्ति-परक कामों को अंजाम देने की सम्मति रहने वाले है। आज के समय में रोजगार हासिल करने की नई कुंजी डिजिटल विश्लेषण एवं क्रियान्वयन दक्षता है। इन दक्षताओं के साथ भविष्य का बुनियादी स्वरूप बॉट्स एवं रोबोट पर निगरानी का व्यावसायिक कार्य का होगा। वहीं जटिल कार्यों के लिए मशीन लर्निंग, क्रिप्टोग्राफी, नेटवर्क साइंस एवं बायोइन्फॉर्मेटिक्स जैसे कौशल की जरूरत होगी। ऐसी दक्षता की जरूरत इंजीनियरिंग एवं प्रबंधन के छात्रों को होगी बल्कि बी-कॉम, चार्टर्ड अकाउंटेंट और पत्रकारिता के छात्रों के लिए भी ये जरूरी होगा। इनके लिए विदेशों ने नये शिक्षा बाज़ार तैयार हो रहे हैं। 

वैसे भी इन दिनों भारतीय संभ्रांत वर्ग अपने बच्चों को उच्च शिक्षा के लिए अमेरिका, ब्रिटेन या ऑस्ट्रेलिया के विश्वविद्यालयों में भेजना पसंद करता है। इस समस्या का एक महत्वपूर्ण हिस्सा यह है कि भारत का कुलीन तबका अपने बच्चों को सबसे अच्छे स्कूलों में भेजता है और फिर बेहतरीन अंडर-ग्रैजुएट कॉलेजों में भी उन्हें प्रवेश दिला देता है। लेकिन कुलीन परिवारों के ये बच्चे आईआईटी, एनआईटी और आईआईएम जैसे भारत के बेहद प्रतिस्पद्र्धी उच्च शिक्षण संस्थानों में प्रवेश की मुश्किल परीक्षा पास करने में नाकाम हो जाते हैं। प्रतिभा पर जोर देने वाले माता-पिता भी कई बार बच्चों के दबाव में आकर बैंक से एक करोड़ रुपये से भी अधिक कर्ज लेकर उन्हें विदेश भेजने को राजी हो जाते हैं। इसकी वजह यह है कि ये बच्चे मां-बाप पर भावनात्मक दबाव बनाने लगते हैं। 

अमेरिकी, ब्रिटिश एवं ऑस्ट्रेलियाई विश्वविद्यालयों को भी भारतीय छात्र पसंद हैं। दरअसल ये छात्र उनके अपने देशों के छात्रों की तुलना में दोगुने से लेकर पांच गुना तक फीस देने को तैयार होते हैं। शीर्ष विश्वविद्यालयों में ऐसे छात्रों का अनुपात करीब 10 फीसदी तक होता है। पढ़ाई के लिए विदेश जाने वाले भारतीय छात्रों की बड़ी संख्या कारोबारी परिवारों से ताल्लुक रखती है और वे वापस लौटकर अपना पारिवारिक व्यवसाय संभाल लेते हैं। बहुत अच्छी आर्थिक स्थिति नहीं रखने वाले माता-पिता को भी ऐसा लगता है कि अगर वे कर्ज लेकर अपने बच्चों को पश्चिमी देशों के विश्वविद्यालयों में पढ़ा देते हैं तो वहां के पुराने छात्रों के नेटवर्क की मदद से उन्हें भारत में काम कर रहे अमेरिकी एवं ब्रिटिश बैंकों या निजी इक्विटी फंडों में नौकरी मिल सकती है। ये ऐसे उद्योग हैं जिनमें भर्ती का मुख्य जरिया ‘पूर्व सहपाठी नेटवर्क' ही होता है।

इस समय ब्रिटेन, अमेरिका एवं ऑस्ट्रेलिया के विश्वविद्यालय भारतीय मीडिया में मौजूदगी दर्ज कराते हुए भारतीयों को लुभाने में लगे हुए हैं। दोनों के बीच फर्क बस यह है कि भुगतान-आधारित विज्ञापनों पर पैसे खर्च करने के बजाय मीडिया कंपनियों की रेटिंग को जरिया बनाकर अपना दावा पेश करते हैं। इस रेटिंग में भारतीय वि वि बहुत पीछे धकेल दिए जाते है और कुछ तो वहां पहुँचने से पहले बाहर हो जाते हैं। 

टाइम्स हायर एजुकेशन रैंकिंग से जुड़ी खबर 'वैश्विक रैंकिंग में भारत शीर्ष 300 के बाहर', 'वैश्विक रैंकिंग में भारतीय विश्वविद्यालय शीर्ष 300 के बाहर' और 'ऊंची रैंकिंग क्यों नहीं हासिल कर सकते हैं भारतीय विश्वविद्यालय?' जैसे शीर्षकों के साथ पेश की गई। कुछ मीडिया रिपोर्ट में इस रेटिंग को थोड़ा सहज अंदाज में 'वैश्विक रैंकिंग में भारतीय विश्वविद्यालयों की स्थिति सुधरी' और 'शीर्ष 200 में 25 संस्थान शामिल' के रूप में पेश किया गया है। इस तरह की खबरें भारत के शिक्षा जगत पर एक ऐसा मानसिक दबाव बनाती है कि कुछ भी करके बच्चों के भविष्य की खातिर उन्हें विदेश पढने भेजना मजबूरी बन जाती है। 

सवाल यह है इससे निजात कैसे मिले? स्कूल से लेकर स्नात्कोत्तर शिक्षा सर्वोत्कृष्ट कम खर्चीली और रोजगार मूलक बने इससे कम में गुजारा नहीं होगा। 
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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