दूध का दूध और पानी का पानी करने वाली न्यायपालिका में ही पारदर्शिता का सवाल खड़ा हो गया है। यह सवाल न्यायपालिका में व्याप्त कथित भ्रष्टाचार की केन्द्रीय जांच ब्यूरो से जांच का आदेश देने वाले पटना उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति राकेश कुमार का आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय में तबादला करने की शीर्ष अदालत की कोलेजियम ने सरकार से सिफारिश के बाद और गहरा गया है। पटना उच्च न्यायालय की 11 न्यायाधीशों की पीठ ने पहले ही न्यायमूर्ति कुमार के आदेश पर रोक लगा दी थी।
प्रधान न्यायाधीश रंजन गोगोई की अध्यक्षता वाली कोलेजियम ने हालांकि न्यायमूर्ति कुमार के साथ ही पटना उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश ए.पी. शाही का भी मद्रास उच्च न्यायालय स्थानांतरण करने की भी सिफारिश की है। इस सारे घटनाक्रम को न्यायमूर्ति राकेश कुमार के न्यायिक आदेश के बाद उठे बवंडर से ही जोड़कर देखा जा रहा है।
कहने को तो कोलेजियम ने 15 अक्तूबर को कई अन्य मुख्य न्यायाधीशों के दूसरे उच्च न्यायालयों में तबादले की सिफारिश की है लेकिन न्यायमूर्ति कुमार का तबादला अधिक चर्चा में है। इसके अलावा कोलेजियम ने पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति रवि रंजन और राजस्थान उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति मोहम्मद रफीक को पदोन्नति देकर झारखंड और मेघालय उच्च न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश बनाने की भी सिफारिश की है। पटना उच्च न्यायालय में अगस्त महीने में हुई घटनाओं ने एक बार फिर यह सोचने पर विवश किया है कि न्यायपालिका में सब कुछ ठीक-ठाक नहीं है। इस स्थिति से उबरने के लिये कठोरतम कदम उठाने और जांच के लिये सुव्यवस्थित मशीनरी की आवश्यकता है।
न्यायपालिका में भ्रष्टाचार के आरोपों के स्टिंग आपरेशनों का जिक्र करते हुये न्यायमूर्ति कुमार ने यही कहा था कि न्यायाधीशों के बंगलों पर जनता का करोड़ों रुपया खर्च हो रहा है। उन्होंने भ्रष्ट न्यायिक अधिकारियों को संरक्षण दिये जाने का उल्लेख करते हुये जांच का आदेश दिया था।
पहला सवाल तो यही उठता है कि पटना उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति राकेश कुमार ने जिन बिंदुओं की ओर इशारा किया था, क्या किसी भी स्तर पर उनकी जांच करायी गयी? क्या इस तथ्य का पता लगाने का प्रयास हुआ कि एक व्यक्ति को जब उच्चतम न्यायालय तक से अग्रिम जमानत नहीं मिली तो निचली अदालत में समर्पण करते ही उसे नियमित जमानत कैसे मिल गयी? यही नहीं, आखिर ऐसी क्या वजह थी कि उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश ए.पी. शाही की अध्यक्षता में 11 न्यायाधीशों की पीठ को अप्रत्याशित कदम उठाते हुये न्यायमूर्ति कुमार का आदेश निलंबित करने के साथ ही उनसे सारा न्यायिक कार्य वापस लेने का निर्देश देना पड़ा। हालांकि, बाद में सितंबर में मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता वाली तीन सदस्यीय पूर्ण पीठ ने न्यायमूर्ति कुमार का न्यायपालिका में भ्रष्टाचार की जांच कराने संबंधी आदेश निरस्त कर दिया था।
न्यायमूर्ति कुमार के तबादले की सिफारिश चौंकाने वाली इसलिए भी रही क्योंकि देश की न्यायपालिका के मुखिया की बागडोर संभालते समय प्रधान न्यायाधीश ने संकेत दिया था कि इसमें भ्रष्टाचार बर्दाश्त नहीं किया जायेगा। प्रधान न्यायाधीश रंजन गोगोई न्यायपालिका में शीर्ष स्तर पर भ्रष्टाचार रोकने और इसमें से भ्रष्ट लोगों को बाहर करने का प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से अनुरोध कर चुके थे।
यही नहीं, प्रधान न्यायाधीश रंजन गोगोई ने तो जुलाई के महीने में भ्रष्टाचार के आरोपों में इलाहाबाद उच्च न्यायालय के पीठासीन न्यायाधीश एस.एन. शुक्ला के खिलाफ केन्द्रीय जांच ब्यूरो को नियमित मामला दर्ज करने की अनुमति देकर सबको चौंका दिया था। यहां सवाल उठता है कि न्यायमूर्ति राकेश कुमार से पहले न्यायिक कार्य वापस लेने, उनका आदेश निरस्त करने और न्यायिक कार्य उन्हें सौंपने और अब उनका तबादला किये जाने की घटना के बाद क्या उच्च न्यायालय का कोई अन्य न्यायाधीश न्यायपालिका में व्याप्त कथित भ्रष्टाचार की जांच का आदेश देने का साहस कर सकेगा? न्यायमूर्ति कुमार के तबादले की घटना के साथ ही उच्चतम न्यायालय की कोलेजियम की कार्यशैली एक बार फिर सवालों के घेरे में है। माई लार्ड !
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
संपर्क 9425022703
rakeshdubeyrsa@gmail.com
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