पानी का प्रबन्धन ऐसे तो होने से रहा | EDITORIAL by Rakesh Dubey

इस बार सम्पूर्ण वर्षाकाल में पानी बरसा, कुछ ज्यादा ही बरसा | अभी भी बरसने की भविष्यवाणी हो रही है | बरसात किसी भी साल की रही हो पानी कम ज्यादा बरसा हो, पानी के प्रबन्धन को भारत में समुचित मान्यता नहीं मिली है। पानी के प्रबंधन से जुड़े सुधार सबसे कम हुए हैं। आजादी के बाद से ही जल प्रबंधन ऐसी स्थिति का शिकार रहा है कि पानी पीने वाला सिंचाई की समस्या नहीं  समझता और सिंचाई करने वाले की प्राथमिकता में पेयजल की कहीं  नहीं होता है | इसके अलावा सरकार उद्ध्योगों को मुफ्त पानी देने का वादा कर जल स्रोत के पास उनकी स्थापना कराती है | उद्ध्योग जितना पानी लेते हैं, उससे ज्यादा अपशिष्ट जल स्रोत में छोड़ देते हैं |

पहले कृषि | कई उदहारण हैं, पेयजल स्रोत इसलिए सूख गये  कि किसानों ने उसका इस्तेमाल अपनी फसलों की सिंचाई के लिए किया | भूमिगत जल का सीमा से ज्यादा दोहन होने से नदियों के सूखने की रफ्तार बढ़ गई, क्योंकि भूमिगत जल ही वर्षाकाल समाप्त होने के बाद नदियों का प्रवाह बनाए रखता है। यह जल प्रवाह और उसकी गुणवत्ता भी जलग्रहण क्षेत्रों के नष्ट होने से प्रभावित हुई है। जिससे बाढ़ आने की आवृत्ति भी बढ़ गई है क्योंकि अतिरिक्त जल की निकासी के प्राकृतिक इंतजाम या तो अवरुद्ध कर दिए गए हैं या वे अतिक्रमण का शिकार हो गए हैं।

सरकार ने कुछ आधार तय कर देश में मौजूद जलभंडारों का विभाजन किया है। तमाम क्षेत्रों के बीच कोई सार्थक संवाद नहीं है। ये हालात ही पानी के बहुआयामी चरित्र को ठीक से नहीं समझने के लिए जिम्मेदार हैं । सतही जल के प्रबंधन का दायित्व केंद्रीय जल आयोग के पास है जबकि केंद्रीय भू-जल बोर्ड भूमिगत जल की निगरानी करता है।इसके अतिरिक्त लगभग हर  राज्य में भी इनके समकक्ष संगठन मौजूद हैं। इन संगठनों के गठन के बाद से ही अब तक इनमें कोई सुधार नहीं हुआ है। वे काफी हद तक स्वतंत्र तरीके से काम करते हैं और अक्सर एक-दूसरे के खिलाफ भी खड़े दिखाई देते हैं।

 भारत में पानी का दो-तिहाई से भी अधिक पानी भूजल होने के बावजूद इसकी बढ़ती अहमियत के उलट केंद्र एवं राज्यों के स्तर पर भूजल विभाग निरंतर कमजोर हुए हैं। हकीकत यह है कि सतही जल मुख्य रूप से सिविल इंजीनियरों के भरोसे है जो भूजल की देखरेख करने वाले जल-भूविज्ञानी इस बात को पूरी तरह नजरअंदाज करते आ रहे हैं कि पानी की बेहतर साज-संभाल के लिए विभिन्न विषयों के पेशेवरों की जरूरत है। देश नदियों में नई जान फूंकने की भारत की प्रतिबद्धता और जन समर्थन के बावजूद हमारे पास देश में कहीं भी जल प्रबंधन से जुड़े किसी भी संगठन में कोई नदी पारिस्थितिकी-विशेषज्ञ या पारिस्थितिकी अर्थशास्त्री कभी मौजूद नहीं रहा। पानी की अधिक जरूरत वाली फसलों चावल, गेहूं और गन्ना के प्रभुत्व वाले कृषि क्षेत्र में पानी का सबसे ज्यादा उपभोग होता है लेकिन जल प्रबंधन कर रही अफसरशाही में एक भी कृषि-विज्ञानी नहीं है।

पानी की बेहतर देखभाल वहीं हो पाई है जहां स्थानीय समुदाय ने भी खुलकर साथ दिया है, चाहे वह भूमिगत जल का प्रबंधन हो या कमान एरिया विकास का मामला हो, लेकिन जल विभागों ने कभी भी किसी सामाजिक संगठनकर्ता को जगह नहीं दी है। सरकारों ने बाहरी सरकारों के साथ संस्थागत साझेदारी भी नहीं बनाई है जिससे उसे जरूरी बौद्धिक एवं सामाजिक पूंजी- नागरिक समाज, बुद्धिजीवी या कंपनी जगत का साथ मिल सके ।सरकार की तरफ से सीडब्ल्यूसी एवं सीजीडब्ल्यूबी के पुनर्गठन के लिए बनी समिति ने २०१५-१६ में जल प्रबंधन के लिए एकदम नया ढांचा बनाने का सुझाव दिया था। तब सीडब्ल्यूसी एवं सीजीडब्ल्यूबी के विलय का प्रस्ताव आया था जिसमे नया राष्ट्रीय जल आयोग  बनाने की बात थी। उस रिपोर्ट को सरकार के भीतर एवं बाहर खूब सराहा गया। जल संसाधन मंत्रालय, नीति आयोग एवं प्रधानमंत्री कार्यालय ने इसे सराहा, परन्तु इस पर सरकार की तरफ से ठोस कार्रवाई का अब भी इंतजार है।

 जलशक्ति मंत्रालय का गठन हुआ है। सिंचाई एवं पेयजल विभाग एक मंत्रालय में आ गये हैं । इस कदम की असली परीक्षा उस समय होगी जब महत्त्वाकांक्षी जल जीवन अभियान शुरू होगा। नागरिको को साफ एवं सुरक्षित पेयजल मुहैया कराने का अकेला तरीका यही है कि हम जलस्रोत को मात्रात्मक एवं गुणात्मक दोनों स्तरों पर टिकाऊ बनाए रखें। इसके लिए जरूरी पानी का बड़ा हिस्सा जलभंडारों में पहुंचाया जाये | जल जीवन अभियान को सफल  बनाना है तो पूरे देश की सरकारों को नागरिक समाज के संगठनों के साथ करीबी रिश्ता बनाना होगा।
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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