नई दिल्ली। गाँधी साहित्य से गूगल तक पर ढूंढा कहीं कोई ऐसा चित्र नहीं मिला, जिसमें गाँधी जी गाँधी टोपी लगाये हुए हों | लेकिन, उनके नाम की टोपी देश में खूब चली और चल रही है | गाँधीजी जब दक्षिण अफ्रीका से भारत आए तो उन्होने पगडी पहनी हुई थी। और उसके बाद उन्होने कभी पगडी अथवा टोपी नहीं पहनी थी, लेकिन भारतीय नेताओं और सत्याग्रहियों ने इस टोपी को आसानी से अपना लिया। आज देश में अलग-अलग रंग की अलग-अलग टोपियाँ हैं| किसी का रंग लाल है तो किसी काला, किसी का केसरिया तो किसी का नीला | दिल्ली देश की राजधानी है, वहां चल रही टोपी पर “मैं भी अन्ना”, केजरीवाल आप, तुम और न जाने क्या-क्या लिखा होता है | कुछ संगठनों ने टोपी को अपने गणवेश में जगह दी | दो अक्तूबर को देश में यत्र तत्र सर्वत्र गाँधी टोपी दिखाई दी | मुझे संदेह है कि किसी ने उस तरह की मतलब खादी से बनी गाँधी टोपी पहनी होगी जैसी गाँधी जी ने सुझाई थी | वैसे भी गाँधी जी के सुझाव को मानने की परम्परा लुप्त होती जा रही है |
गाँधी जी ने कहा था "भारत एक गर्म देश है और यहाँ गर्मी से बचने के लिए सर ढँकना ज़रूरी लगता है और इसीलिए यहाँ विभिन्न प्रकार की टोपी और पगड़ी चलन में हैं। अधिकाँश जनसँख्या पगड़ी या टोपी किसी न किसी रूप में उपयोग करती है।“ एक पुस्तक में इस सम्बन्ध में एक कथा काका कालेलकर के नाम से उद्घृत है | जिसमे काका कहते हैं कि “गांधी जी को कश्मीरी टोपी अच्छी लगी क्योंकि यह टोपियां हल्की थी और मोड के जेब में रखी जा सकती थी। यह टोपियां बनाने में आसान भी थी लेकिन ऊन से बनी हुई थी और इसीलिए गांधी जी ने ऊन के स्थान पर खादी का प्रयोग करने का विचार किया। उन्होंने फिर सोचा यदि खादी का प्रयोग हो भी तो किस रंग का जो कि सर पर शोभा दें। और फिर कई विचार करने के बाद उन्होंने श्वेत रंग का ही चुनाव किया और उसका उसका कारण दिया की सफेद रंग की टोपी पर पसीना होने पर वह तुरंत मालूम चल जाएगा और ऐसा होना यह बताएगा की टोपी को धुला जाना है और इस कारण स्वच्छता बनी रहेगी। बहुत विचार के बाद गांधी जी ने अपनी पसंद की टोपी बनाने का निर्णय लिया।काँग्रेस पार्टी ने इस टोपी को गाँधीजी के साथ जोडा और अपने प्रचारकों एवं स्वयंसेवकों को इसे पहनने के लिए प्रोत्साहित किया। आज कांग्रेस में उनकी संख्या ज्यादा हो गई है जो किसी भी प्रकार की टोपी धारण नहीं करते हैं ।
जो लोग बतौर रस्म अदायगी इसे पहनते भी रहे हैं तो उसके पीछे अनेक कहानी और किस्से जुड़ने से इस का प्रचलन कम हो गया | टोपी आन्दोलन से निकल कर बाजार में आ गई और अनेक मुहावरों और अर्थों को अपने साथ जोडकर बाजार में उछलने भी लगी | जब गांधी जी दक्षिण अफ्रीका में वकालत करते थे। वहाँ अंग्रेजों के द्वारा किए जा रहे अत्याचारों से दुखी होकर गांधी जी ने सत्याग्रह का मार्ग अपनाया था। उस समय अंग्रेजों ने एक नियम बना रखा था कि हर भारतीय को अपनी फिंगरप्रिंट्स यानि हाथों की निशानी देनी होगी। गाँधीजी इस नियम का विरोध करने लगे और उन्होने स्वैच्छा से अपनी गिरफ्तारी दी। जेल में भी गाँधीजी को भेदभाव से दो चार होना पड़ा क्योंकि अंग्रेजों ने भारतीय कैदियों के लिए एक विशेष प्रकार की टोपी पहनना जरूरी कर दिया था।
भारत में गाँधी टोपी के प्रचलन ने कभी-कभी बड़ी बैठकों में बड़ी बैठकों में टोपी ना पहनने वालों को गांधी जी के गुस्से का भी सामना करना पड़ा और अंततः टोपी और राष्ट्रीयता आपस में इतनी जुड़ गई की अंग्रेजों को बीच में कूदना पड़ा और उन्होंने खादी टोपी की बिक्री पर प्रतिबंध लगा दिया था। गांधी जी के इस तरह के प्रयोगों से हमेशा डरने वाले अंग्रेजों ने गांधी टोपी पहनने वालों को सरकारी नौकरियों से निकलना शुरू कर दिया था , उन्हें कोर्ट कचहरी और सार्वजनिक स्थानों पर प्रवेश से कई बार रोक दिया गया और यहां तक जुर्माना भी वसूला गया और इसी के साथ ही गांधी ने अपने इस प्रयोग को आजादी की एक राष्ट्रीय पहचान के रुप में बदल दिया।
आजादी के बाद यह खादी टोपी जिसे गांधी टोपी के रूप में जाना गया, पूर्व प्रधानमंत्रियों जैसे जवाहरलाल नेहरू लाल बहादुर शास्त्री और मोरार जी देसाई (Prime Ministers like Jawaharlal Nehru Lal Bahadur Shastri and Morarji Desai) ने अपने साथ एक विरासत के रूप में और एक पहचान के रूप में जारी रखी और ऐसे नेताओं के बाद भी भारतीय राजनीति में और सामाजिक क्षेत्रों में यह टोपी बाद में भी प्रयुक्त होती रही। अब भी होती है, जैसे कल २ अक्तूबर को हुई | टोपी लगाने का प्रदर्शन हुआ, रंग बदले ढंग बदले पर विचार नहीं बदले |
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।