रमेश पाटिल। 2001-02 में अशासकीय शालाओ से शासनाधीन हुए शैक्षणिक कर्मचारी राज्य शासन के शिक्षा विभाग के नियमित शैक्षणिक कर्मचारी बन चुके है। ना कभी कोई प्रतियोगी परीक्षा देनी पडी केवल भाई-भतीजावाद से भर्ती हुई। ना इन शालाओ की भर्ती में आरक्षण नियमों का पालन हुआ। ऊपर से भर्ती करते समय न्यूनतम शैक्षणिक योग्यता का भी ध्यान नहीं रखा गया लेकिन किस्मत देखिये की ये अब राज्य शासन के शिक्षा विभाग के नियमित कर्मचारी है।
लाखो रूपये एरिअस ले चुके है और परिवार पेंशन के पात्र भी घोषित हो चुके है। नेशनल पेंशन स्कीम की पेंशन का भी लाभ वर्तमान में ले रहे है अर्थात दोहरी पेंशन। माननीय सर्वोच्च न्यायालय के आदेश से 2014 में यह संभव हुआ है। मध्यप्रदेश शासन की छोटी सी गलती की वजह से।शासन ने शिक्षाकर्मी भर्ती प्रक्रिया तो प्रारम्भ कर दी थी। नियमित शिक्षक संवर्ग के पद भी मृत घोषित कर दिए थे लेकिन शिक्षाकर्मी भर्ती के पूर्व शासनाधीन किये जाने वाले अशासकीय शालाओ के कर्मचारियों की नीति में परिवर्तन/संशोधन करना मध्यप्रदेश शासन भूल गया।
कितना विचित्र है कि 1998-99 में नियुक्त शिक्षाकर्मी माननीय सर्वोच्च न्यायालय के दिशा-निर्देश में वेतनमान पर सीधी भर्ती होने के बावजूद राज्य शासन के शिक्षा विभाग के नियमित कर्मचारी नही बन पाये, ना परिवार पेंशन की पात्रता लागू हुई। ऐसी ही नीतियो के कारण आक्रोश भडकता है।इसलिए मध्यप्रदेश शासन को 1998-99 में नियुक्त शिक्षाकर्मियो पर उदारता पूर्वक विचार करना चाहिए और शासनाधीन हुई अशासकीय शालाओ के कर्मचारियो की तरह लाभ देना चाहिए।