नई दिल्ली। शहर हो या गाँव दूध एक अनिवार्य आवश्यकता है। असली दूध के उत्पादन में कमी और इस उद्ध्योग की परेशानियों ने नकली दूध का एक बड़ा बाज़ार खड़ा कर दिया है। नकली दूध निर्माण और उसके प्रभाव पर बात फिर कभी, अभी तो असली दूध के रोजगार से जुड़े लोगों की समस्याओं पर बात। देश में करोड़ों ग्रामीण परिवारों के लिए आय का एक महत्वपूर्ण साधन हमेशा से रहा है दूध व दुग्ध उत्पाद का रोजगार। सही नीतियां न अपनाने से यह रोजगार संकट में पड़ता चला जा रहा है।
चारागाह बहुत कम होने तथा भूसा व खली बहुत महंगे होने से अनेक परिवारों के लिए दूध आधारित रोजगार में कम होती बचत इसे दुष्काल में धकेल रही है। संगठित क्षेत्र के लिए तो संभव है कि वह दूध पाउडर व बटर ऑयल मिलाकर अपेक्षाकृत सस्ता दूध बेच सकें व बाजार पर छा जाएं, जबकि असंगठित क्षेत्र के दूध उत्पादक व विक्रेता के लिए इस मुकाबले में टिकना कठिन है। यही वजह है कि आज गांव में भी पॉलीथीन में पैक दूध धड़ल्ले से बिक रहा है, और स्थानीय भैंस या गाय पालक संकट में है।
ऐसे में अगर भारत 16 देशों का आरसीईपी ( क्षेत्रीय समग्र आर्थिक भागीदारी) समझौता अपना लेता, तो यह बड़ी संभावना थी कि डेयरी के संगठित और असंगठित दोनों क्षेत्रों का खतरा बहुत बढ़ जाता। इस समझौते के होने से दूध उत्पादों विशेषकर दूध पाउर (एमएसपी या स्क्मिड मिल्क पाउडर) व बटर ऑयल का आयात तेजी से बढ़ सकता था। विशेषकर न्यूजीलैंड व आस्ट्रेलिया से आयातित दूध सामग्री बहुत तेजी से बढ़ सकती थी। इसका भारत में दूध आधारित रोजगार पर बहुत प्रतिकूल असर पड़ने की पूरी संभावना थी।इसी कारण इसका व्यापक विरोध हुआ व अंत में भारतीय सरकार ने इसे फिलहाल टाल दिया है।
फ़िलहाल जहां एक ओर भारतीय दूध उत्पादकों को आयातित दुग्ध उत्पादों से बचाना जरूरी है। वहां दूसरी ओर असंगठित क्षेत्र के दूध उत्पादकों व भूमिहीन दूध उत्पादकों की अधिक विकट समस्याओं पर अधिक ध्यान देना जरूरी है। डेयरी विकास के नाम की बाहरी चमक-दमक के नाम पर जो सबसे जरूरतमंद तबकों की उपेक्षा होती रही है। उस उपेक्षा को भी दूर करना होगा।देश में चरागाहों की रक्षा व हरे चारे के स्थानीय प्रजातियों के वृक्षों की रक्षा बहुत जरूरी है। यह हरियाली अधिक पनपेगी तभी देश में डेयरी विकास का आधार सही मायनों में मजबूत होगा। इसके अतिरिक्त स्थानीय तिलहन फसलों की किस्मों को बढ़ाना व तिलहन से तेल प्राप्त करने के ग्रामीण कुटीर उद्योग को बढ़ाना बहुत जरूरी है ताकि गांव की खली गांव में ही रह सके और वहां के पशुओं को प्राप्त हो सके। भूमिहीनों को थोड़ी सी अपनी भूमि अवश्य मिलनी चाहिए। जल-संरक्षण को उच्च प्राथमिकता देनी चाहिए ताकि पर्याप्त वर्षा न हो तो भी कुछ हरियाली बनी रहे। दुधारू पशुओं की स्थानीय नस्लों की रक्षा होनी चाहिए क्योंकि स्थानीय जलवायु विशेषकर अधिक गर्मी सहने के अधिक अनुकूल है।
इन जरूरतों से विपरीत हकीकत है। उपेक्षा के कारण चरागाह कम हुए। उत्तम चारे वाले स्थानीय पेड़ों के स्थान पर ऐसी विदेशी प्रजातियों के पेड़ लगा दिए गए जो पशुओं के लिए बेकार या हानिकारक हैं। वृक्षारोपण कार्यक्रम तो ऐसे चलाया गया है कि दुधारू पशु देश के दुश्मन हैं। फसल की कटाई का मशीनीकरण इस तरह से किया गया कि भूसे-चारे का बड़े पैमाने पर विनाश हुआ। फसल चक्र में कई बदलाव हुए व मशीनीकरण इस तरह का हुआ कि देश में कई जगहों पर पराली जलाने की स्थिति उत्पन्न हो गई। चारा भी कम हुआ, हरियाली का आधार भी नष्ट हुआ व साथ ही प्रदूषण की समस्या भी गंभीर हुई। देशीय दुधारू पशुओं की नस्ल सुधारने के स्थान पर ऐसे संकरित दुधारू पशुओं को बढ़ावा दिया गया जो हमारे देश की जलवायु के अनुकूल नहीं हैं। इसके अतिरिक्त ऐसे कदम भी उठाए गए जिससे कि दुधारू पशुओं से संबंधित रोजगार भी कठिन होता गया और उसके लिए अनेक नई समस्याएं उत्पन्न होती गईं।बेहतरी के लिए इस बात की जरूरत है कि व्यापक परामर्श से पुरानी गलतियों को सुधारा जाए व नई गलतियां होने पर रोक लगाई जाए।
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
संपर्क 9425022703
rakeshdubeyrsa@gmail.com
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