पराली जलाने का भी विकल्प मौजूद है | EDITORIAL by Rakesh Dubey

नई दिल्ली। देश के अनेक हिस्सों में अक्टूबर और नवंबर में भारी वायु प्रदूषण देखने को मिल रहा है। इसके पीछे कई कारक हैं लेकिन जिन राज्यों में धान की फसल के अवशेष जलाए जा रहे हैं वहां प्रदूषण ज्यादा है। एक दिक्कत यह भी है कि गैर बासमती धान के सूखे डंठल, गेहूं के डंठल की तुलना में बेहद खराब चारा माने जाते हैं। किसानों के पास इस अवशेष को जलाने या धरती में निपटाने के अलावा कोई विकल्प नहीं है। यही कारण है कि देश भर में यह समस्या आम हो चली है। जहन हवा की गुणवत्ता पहले से ही खराब है, वहां हालात बदतर हो रहे हैं |

कुछ वर्ष पहले तक धान की खेती में हार्वेस्टर का प्रयोग कम होता था और अधिकांश खेती हाथ से होती थी। हाथ से की जाने वाली खेती में धान की कटाई सतह से 6 से 10 सेमी ऊपर से होती थी। इससे अवशेष बहुत कम बचता और जुताई के बाद आसानी से निकल जाता। अब देश के एक बड़े इलाके में हार्वेस्टर से खेती होती है। मशीन केवल ऊपर से 20 सेमी फसल काटती है और बाकी पौधा जस का तस छोड़ देती है। बचा हुआ अवशेष अगली फसल की तैयारी में मुश्किल पैदा करता है। धान कटाई के चार से छह सप्ताह बाद गेहूं की बुआई होती है। ऐसे में खेत को जल्दी साफ करना एक समस्या होती है। इससे अधिकांश किसान आग लगाने का विकल्प चुनते हैं जो जल्दी भी होता है और इसकी लागत भी कुछ नहीं होती। लेकिन ,यह समस्या ज्यादा गंभीर है।

कुछ किसानों इस अवशेष को मिट्टी में दबाते हैं। इसके लिए अवशेष को छोटे-छोटे टुकड़ों में काटना होता है जिससे उनको जुताई के दौरान मिट्टी में मिलाया जा सके। इससे उर्वरता बढ़ती है और अवशेष का अपघटन हो जाता है। यह अपघटन बहुत धीमी गति से ही सही लेकिन वातावरण में मीथेन उत्सर्जित करता है। इसमें किसान को पैसे भी खर्च करने पड़ते हैं। इसमें कई मशीन प्रयोग की जाती हैं और इसकी लागत करीब 3000 रुपये प्रति एकड़ आती है। आवश्यकता इस बात की है कि देश के हर हिस्से में फसल अवशेष जलाने का दीर्घकालिक हल निकाला जाए। इससे निपटने के लिए तीन तरीके अपनाए जा सकते हैं। पहला, फसल अवशेष से बायो-सीएनजी का उत्पादन।दूसरा विकल्प है बायोमास के परिवर्तित स्वरूप को ताप बिजली घरों में कोयले के स्थान पर प्रयोग करना या औद्योगिक संयंत्रों में ईंधन के रूप में आजमाना। धान के प्रचुर उत्पादन वाले इलाकों में यह तरीका भी कारगर हो सकता है। तीसरा विकल्प है बायोमास का शीघ्र अपघटन कर उसे जमीन में मिला देना।

भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान के वैज्ञानिकों ने एक माइक्रोबायल फॉर्मूला बनाया है जो धान के बायोमास को 20-25 दिन में अपघटित कर देता है। अब वे इस तकनीक को खेतों में प्रयोग करने लायक बना रहे हैं। उम्मीद की जानी चाहिए कि यह तकनीक जल्दी ही खेतों में प्रयोग के लिए तैयार होगी। इन विकल्पों के सहारे कचरे को संपत्ति में बदला जा सकता है और इसके साथ ही यह धान के अवशेष जलाने से भी देश भर में छुटकारा दिला सकते हैं। बीते तीन दशक के दौरान हमारी खेती के तरीके में भी बदलाव आया है। इसके लिए कच्चे माल पर सब्सिडी और उत्पादन मूल्य नीति जिम्मेदार है। आज हम मांग से 10 प्रतिशत अधिक चावल उगा रहे हैं। जाहिर है ऐसा नीतियों के चावल उत्पादन के पक्ष में झुके होने से हो रहा है। इसका असर भूजल पर पड़ रहा है। इससे पर्यावरण खराब हो रहा है और राजकोषीय संसाधनों पर भारी दबाव पड़ रहा है।
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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