इंदौर। तीन साल पहले डिलीवरी के दौरान लापरवाही बरतने से नवजात बच्चे की मौत के मामले में मप्र मेडिकल काउंसलिंग (MCI) परदेशीपुरा स्थित वर्मा नर्सिंग होम की महिला रोग व प्रसूति विशेषज्ञ डॉ. दीपिका वर्मा (Dr. Deepika Verma, Women & Obstetrician) पर 15 दिन का बैन लगाते हुए लाइसेंस निलंबित कर दिया है। स्कीम 78 निवासी सीए योगेश अग्रवाल पत्नी श्रीया को डिलीवरी के लिए 13 फरवरी 2016 की रात 2.25 बजे वर्मा नर्सिंग होम ले गए थे, जहां डिलीवरी के दौरान नवजात बच्चे की मौत (Death of a newborn child) हो गई और मां का बच्चेदानी फटने से यूट्रस डेमेज हो गया।
अग्रवाल ने इस मामले में डॉ. दीपिका की लापरवाही बताते हुए एमसीआई को शिकायत की थी। इस मामले में ईथिक्स कम डिसिप्लीनरी कमेटी ने डॉ. दीपिका को लापरवाही बरतने का दोषी पाया। कमेटी ने कहा, दस्तावेजों की जांच से स्पष्ट है, घटना की रात 2.45 बजे डॉ. दीपिका ने मरीज को देखा, तब महिला और गर्भ में बच्चा सामान्य था। इसके बाद 3 से सुबह 6 बजे तक पांच बार मरीज की जांच की गई। बार-बार ऑपरेशन की सलाह दी गई, लेकिन ऑपरेशन नहीं किया गया, जिसका कारण परिजन द्वारा नॉर्मल डिलेवरी का दबाव बनाना बताया गया, जबकि डॉक्टर पहली बार में ही हाई रिस्क बताकर परिजन को समझाइश देकर दस्तखत करा सकती थीं।
इस मामले में कमेटी डॉ. दीपिका को आंशिक रूप से दोषी पाते हुए उनका लाइसेंस 25 नवंबर से 9 दिसंबर 2019 तक निलंबित करती है। इस दौरान वह किसी तरह की प्रैक्टीस नहीं कर पाएंगी और लायसेंस काउंसिल में जमा कराना होगा। पीएम से लेकर हाई कोर्ट तक लगाई गुहार अग्रवाल ने बताया, इस मामले में पुलिस के साथ एमसीआइ भोपाल को लिखित शिकायत की थी। तीन साल तक भोपाल से कार्रवाई नहीं की गई। लगातार मामले को टालने को लेकर एमसीआइ दिल्ली में शिकायत की। वहां से भोपाल कार्यालय को तीन माह में निर्णय लेने को कहा गया, फिर भी कार्रवाई नहीं की गई तो पीएमओ में शिकायत की, वहां से भी कार्रवाई के लिए कहा गया। इन सब के बाद भी कार्रवाई नहीं हुई तो हाई कोर्ट की शरण ली। एक माह पहले कोर्ट ने एमसीआइ दिल्ली को इस मामले में नए सिरे से जांच कर कार्रवाई के निर्देश दिए। तब भोपाल से अचानक आदेश जारी हुए।
दो बार सीटीजी जांच कराई गई, तब बच्चे का वजन सामान्य बताया गया। डॉक्टर ने कोई रिस्क नहीं होने पर डिलीवरी में समय होने की बात कही। बाद में मृत बच्चे का वजन तीन किलो बताया गया। मरीज को भर्ती करने के बाद डॉक्टर घर चली गई और दो घंटे तक वह दो नर्सों के भरोसे रही। ऑपरेशन में देरी को लेकर बच्चादानी फटने से बच्चे की मौत हुई और महिला का यूट्रस क्षतिग्रस्त हो गया। दूसरी मंजिल स्थित ओटी में पैदल चलाकर ले जाया गया, ऑपरेशन के दौरान शिशुरोग विशेषज्ञ नहीं थे। ऑपरेशन के बाद डॉ. सुरेश वर्मा को बुलाया गया। लापरवाही को लेकर विवाद हुआ तो 14 से 17 फरवरी 2016 तक अस्पताल में भर्ती मरीज को देखने डॉ. दीपिका एक बार भी नहीं आई।
अस्पताल आने पर महिला को 9 माह का गर्भ था और दो दिन से पेट में दर्द हो रहा था। रात 2.30 बजे भर्ती करने के वक्त पूरी जांच की गई। जांच में बच्चे का वजन सामान्य मिला, ज्यादा दर्द होने पर पति को ऑपरेशन की सलाह दी, लेकिन वे नार्मल डिलीवरी चाहते थे और ऑपरेशन की अनुमति नहीं दी। सुबह 5.30 बच्चे की धडक़न कम होने लगी तो परिजन को समझाइश देकर ऑपरेशन के लिए अभिमत पत्र पर दस्तखत करने के लिए तैयार किया। डिलीवरी के बाद बच्चा रोया नहीं तो तुरंत शिशुरोग विशेषज्ञ के हवाले किया गया, उन्होंने मृत घोषित कर दिया। डिलीवरी के दौरान तरल में खून और बच्चे का गाढ़ा मल मिला हुआ था।
केंद्र सरकार के क्लीनिकल एस्टेब्लिशमेंट एक्ट को प्रदेश में लागू नहीं कराने के लिए इंडियन मेडिकल एसोसिएशन (आइएमए) विरोध कर रहा है। इस एक्ट में ऐसी लापरवाही सामने आने पर एक से पांच साल तक की सजा के साथ ही एक लाख से एक करोड़ रुपए तक जुर्माने का प्रावधान है। साथ ही पुलिस को शिकायत के साथ सीएमएचओ को सीधी कार्रवाई के अधिकार भी दिए गए हैं। प्रदेश सरकार एक्ट को लागू करने के लिए डॉक्टरों सहित समाज के विभिन्न वर्गों से रायशुमारी कर रही है, लेकिन अब तक एक्ट लागू करने की दिशा में कदम नहीं उठाए गए हैं। सजा नाकाफी, लेकिन गलती मानी तो सीए अग्रवाल ने बताया, तीन साल तक लापरवाही सिद्ध करने के लिए सरकारी दफ्तरों के चक्कर काटे हैं। इसके बाद 15 दिन के लिए प्रैक्टीस पर रोक लगाने की सजा नाकाफी है। फिर भी विभाग ने डॉक्टर की गलती तो मानी ही। अब इस मामले में दिल्ली एमसीआइ से सजा बढ़ाते हुए डॉक्टर पर आजीवन बैन लगाने की अपील करूंगा।