रमेश पाटिल। चेहरे पर जरूर मुस्कुराहट होती है लेकिन अविश्वसनीय राजनीतिक चरित्रो से अध्यापक संवर्गीय शिक्षक अपनी सेवाकालिन स्थिति और सेवानिवृत्ति उपरांत अनिश्चित भविष्य को लेकर घुटन और बेबस महसूस कर रहा है। उस पर भविष्य निर्माता, राष्ट्र निर्माता और चाणक्य के वंशज जैसे भारी भरकम तमगे जरूर लगे है लेकिन वह अपने भविष्य को लेकर ही सबसे ज्यादा चिंतातुर है।
अध्यापक संवर्गीय शिक्षक आज तक न जाने कितने राजनीतिक चरित्रो की घोषणाओ, वचनो और आश्वासनो से गुजरने के बावजूद अपने मूल अधिकारो से कोसो दूर है।अपने मातृविभाग "शिक्षा विभाग" से वंचित है।इंतेहा तो तब हो जाती है जब स्वयं अध्यापक संवर्गीय शिक्षक राजनीतिक चरित्रो के षडयंत्र को न समझ "राज्य शिक्षा सेवा" में नियुक्ति को ही शिक्षा विभाग में संविलियन समझ खुशी से लोट-पोट होकर उन्ही की बोली बोलने लगता है।आज के समय में राजनीतिक व्यक्तियो का चरित्र बडा ही अविश्वसनीय हो गया है उन पर रत्तीभर भी भरोसा करना आत्मघाती होता है। लेकिन पढ़ा-लिखा अध्यापक संवर्गीय शिक्षक संवर्ग ही शब्दों के भेद को न समझ अपने आप को मूर्ख बनाने पर तुला है तो विश्वासपूर्वक कहा जा सकता है कि ऐसा संवर्ग शोषण से मुक्ति का अभियान के अपने लक्ष्य को कभी साध नही सकता है।
अपने मूल कार्य के साथ अनेको विभागो के कार्यो के बोझ से दबा लडखडाता अध्यापक संवर्गीय शिक्षक जहां पाठशालाओं में शासन की नूत-नवीन प्रयोगो की प्रयोगशाला का मुकदर्शक बनने के लिए विवश हो गया है।वही शालाओ में प्रयोगो का शिकार होकर वह अपने मूल कर्म गुणवत्तापूर्ण शिक्षादान से भी वंचित होता जा रहा है। यह जानते हुए भी शासन के प्रयोग असफल होने पर सारा ठिकरा उस पर ही फोड दिया जाएगा।वातावरण निजीकरण के लिए बनाया जा रहा इसे वह अपनी खूली आंखो से देख रहा है लेकिन उसे भेद नही पा रहा है।
किसी भी संघर्षरत कर्मचारी संवर्ग के लिए राजनीतिक अस्थिरता का वातावरण सबसे बडी चिंता का कारण होती है।उसके मन में शोषण से मुक्ति की छटपटाहट बढने लगती है।ऐसी ही छटपटाहट अध्यापक संवर्गीय शिक्षक महसूस कर रहा है।आज जहां वह खडा है वहा वह अधिकार सम्पन्न न होने के कारण शोषण की भट्टी में तो जल ही रहा है।सेवानिवृत्ति भविष्य के लिए भी वह शासन की सामाजिक सुरक्षा के दायित्व का कृपा पात्र नही बन पाया है।आज भी अध्यापक संवर्गीय शिक्षक अपने "शिक्षाकर्मी" के रूप मे नियुक्त होने पर लगाये गये प्रारम्भिक नारे " ना बीमा है ना पेंशन है, जीवन भर का टेंशन है।" के इर्द-गिर्द ही घूम रहा है।वह अब अच्छे से जानने-समझने लगा है कि सत्ता-सुंदरी का सपना देखने वाला व्यक्ति दिल खोलकर कर्मचारी संवर्ग को सुंदर-सुंदर सपने तो दिखा सकता है लेकिन सत्ता-सुंदरी प्राप्त होते ही कर्मचारी संवर्ग के सपनो को पूरा करने का रास्ता ही भूल जाता है या मजबूरियों का ऐसा पहाड खडा कर देता है कि कर्मचारी संवर्ग अपने अधिकारो की बात करने में ही संकोच करने लगता है।
अध्यापक संवर्गीय शिक्षक संवर्ग को आत्मावलोकन करना होगा।निजीकरण के रास्ते को हरी झंडी दिखाने के लिए कर्मचारी संवर्ग के अधिकारो की बली चढाई जा रही है उसमें सार्वजनिक हित कम व्यक्ति विशेष वर्ग के गहरे स्वार्थ छुपे हुए है इसको पहचानना होगा।संघर्ष की धार को तेज करना होगा लेकिन बेहद सतर्कता के साथ।शिक्षा जन-जन के पहुंच में रहे इसलिए शिक्षा की शासकीय व्यवस्था को तो हर हाल में बचाना ही होगा। इसके लिए सशक्त विरोध तो दर्ज कराते रहना होगा। इस सत्य को स्वीकारते हुए की मजबूत व्यक्ति ही सशक्त विरोध दर्ज करने में सफल होता है पहले अपने आप को मजबूत बनाना होगा।अध्यापक संवर्गीय शिक्षक मजबूत तब ही होगा जब वह अधिकार सम्पन्न होगा।घूटन और बेबसी से मुक्ति का एकमात्र रास्ता उसके पास यही बचता है कि वह राजनीतिक चरित्रो के पास अपने आप को ऐसा प्रस्तुत करे की आपको अधिकार सम्पन्न बनाने के अलावा कोई अन्य विकल्प ही उसके पास न हो।इसके लिए जो भी वैधानिक प्रयास किए जा सकते है वो सब करे।इसका सरलतम उपाय है- "अपना संघर्ष खुद करे, दूसरो के भरोसे संघर्ष से सकारात्मक परिणाम की अपेक्षा ना रखे।"