डेटा संरक्षण विधेयक की सार्वजनिक जांच और संसदीय परीक्षण तक कम करने के लिए अप्रत्याशित उपाय किए हैं। विधेयक के मसौदे को संसद में पेश करने के पहले भलीभांति वितरित नहीं किया गया और मसौदा प्रक्रिया के दौरान की गई टिप्पणियों तथा अन्य बातों को भी सार्वजनिक नहीं किया गया। वैसे भी विधेयक का परीक्षण संसद की सूचना प्रौद्योगिकी संबंधी स्थायी समिति (जिसकी अध्यक्षता एक विपक्षी सदस्य के पास है) से कराने के बजाय इस उद्देश्य के लिए प्रवर समिति से कराई जाए। जांच की इस कमी के चलते ऐसी आशंका उत्पन्न हुई है कि शायद चिंता उत्पन्न करने वाली कई वजहें बरकरार रहें।
इसका सकारात्मक पहलू देखें तो कंपनियों द्वारा डेटा के दुरुपयोग के खिलाफ अच्छा संरक्षण प्रदान किया गया है। इसमें विलोपन के अधिकार से संबंधित अधिकार के साथ-साथ सुधार के अधिकार का प्रावधान भी है जो लोगों को यह अनुरोध करने का अधिकार देता है कि वे आंकड़ों को मिटा सकें या उनमें बदलाव कर सकें। ऐसा तब किया जा सकेगा जब वह आंकड़ा जिस उद्देश्य से दिया गया था वह पूरा हो चुका हो और उसकी अब आवश्यकता नहीं रह गई हो। हालांकि सरकारी निगरानी और डेटा प्रबंधन के क्षेत्र में भारी भरकम रियायत के जरिये इसे नाकाम कर दिया गया। इसके अलावा भी कई परेशान करने वाले प्रावधान हैं। सोशल मीडिया मंचों से कहा जाएगा कि वे उपयोगकर्ताओं के प्रमाणन की एक स्वैच्छिक प्रक्रिया पेश करें। सरकार का दावा है कि वह ऐसा डेटा मांग सकती है जो व्यक्तिगत न हो। सन २०१८ में न्यायमूर्ति श्रीकृष्ण समिति ने जो मसौदा तैयार किया था उसमें भी सरकार को डेटा प्रबंधन के क्षेत्र में कुछ रियायतें प्रदान की गई थीं। अब उनका और विस्तार कर दिया गया है। श्रीकृष्ण समिति ने सरकारी डेटा प्रसंस्करण के बारे में सुझाव दिया था कि इसे जरूरी और उचित अनुपात में होना चाहिए। अब यह प्रावधान हटा दिया गया है। बल्कि किसी भी सरकारी संस्था या विभाग को बिना सहमति के डेटा जुटाने का अधिकार देने का प्रावधान शामिल कर दिया गया है। यानी राज्य की निगरानी पर कोई नियंत्रण नहीं रह गया।
प्रस्तावित डेटा संरक्षण प्राधिकरण (डीपीए) को कमजोर कर दिया गया क्योंकि सभी सदस्य सरकार के होंगे। यह श्रीकृष्ण समिति के सुझाव के उलट है जिसने कहा था कि इसमें कार्यपालिका, न्यायिक और बाहरी उपक्रमों के साथ लोगों को भी शामिल करना चाहिए। मसौदे में डीपीए के गठन के लिए कोई मियाद तय नहीं की गई है। यदि सोशल मीडिया मंचों को 'स्वैच्छिक' प्रमाणन की प्रक्रिया बताने पर मजबूर किया गया तो इससे अभिव्यक्ति की आजादी को नुकसान होगा और उनकी निजता को नुकसान होगा जो प्रमाणन करवाएंगे। यदि कोई व्यक्ति यह 'स्वैच्छिक' प्रमाणन नहीं कराता तो सरकारी एजेंसियां उसे निशाना बना सकती हैं। इससे प्रोफाइलिंग और डेटा उल्लंघन का खतरा भी बढ़ेगा। जो डेटा व्यक्तिगत नहीं है उसे सरकार को देने के प्रावधान का भी दुरुपयोग हो सकता है। गैर व्यक्तिगत डेटा की परिभाषा बहुत व्यापक है।
यहां तक कि ई-कॉमर्स बिक्री रुझान से भी जाति, धर्म, चिकित्सकीय स्थिति, यौनिकता, पठन की आदत जैसी निजी जानकारी जुटाई जा सकती है। सरकार की पहुंच और निर्बाध निगरानी क्षमता के चलते गैर व्यक्तिगत और व्यक्तिगत डेटा को मिलाया जा सकता है। उस आंकड़े से मतदाताओं को प्रभावित करने या धमकाने का काम किया जा सकता है। यह दुखद है कि देश का पहला निजता कानून इतनी कमियों वाला है। यह भी विडंबना ही है कि इसे न्यूनतम पारदर्शिता के बिना पारित करने का प्रयास किया जा रहा है। इससे गड़बड़ीयुक्त कानून बन सकता है। यदि विपक्ष बहस और संशोधन पर जोर नहीं देता तो ऐसा कानून बन सकता है जो आम जन का बचाव नहीं कर पाएगा।
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
संपर्क 9425022703
rakeshdubeyrsa@gmail.com
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