नई दिल्ली। भारत सरकार के आगामी वर्ष का बजट तैयार हो रहा है। हमेशा की भांति इस वित्त मंत्री श्रीमती निर्मला सीतारमण को सबसे पहले आगामी वर्ष में अर्थव्यवस्था की संभावित वृद्धि दर तय करनी होगी। राजस्व, घाटा तथा तमाम अन्य आंकड़े इस बात पर निर्भर करते हैं कि वे उक्त वृद्धि दर का कितना सटीक आकलन लगा पाती है। चालू वर्ष में यदि मुद्रास्फीति समेत जीडीपी वृद्धि दर का अनुमान सही होता तो राजस्व आकलन में कुछ गंभीर खामियों से बचा जा सकता था।
सरकार को पिछले साल से सबक लेकर आगामी बजट के पूर्व वित्त मंत्री के हाथ मजूबत करना चाहिए। हकीकत यही है कि सही अनुमान अतीत के रुझानों के सही अध्ययन पर निर्भर करता है। देश की अर्थ व्यवस्था 2020 तक इस दशक में अर्थव्यवस्था कमोबेश दो गुनी हो जाएगी। इस दौरान औसत वृद्धि दर 7 फीसदी की रही, परंतु दशक के बीच के वर्षों में अर्थव्यवस्था को तेल कीमतों में भारी गिरावट से भी लाभ मिला। यह शायद दोहराया न जाए। इसके अलावा मौजूदा वैश्विक आर्थिक हालात भी बहुत उत्साहवर्धक नहीं हैं। घरेलू अर्थव्यवस्था में कई सुधार करने की आवश्यकता है।
वित्तीय क्षेत्र में सुधार की जरूरत है, निर्यात में ठहराव है, राजकोषीय या मौद्रिक नीति पहल की कोई खास गुंजाइश नहीं है। बीती तिमाही में चूंकि अर्थव्यवस्था का गैर सरकारी हिस्सा 3 प्रतिशत की गति से ज्यादा तेजी से नहीं बढ़ा, ऐसे में अर्थव्यवस्था के लिए अगले वर्ष के लिए 5 प्रतिशत के आसपास की अनुमानित वृद्धि दर ही वास्तविक होगी। इसमें ज्यादा से ज्यादा आधा प्रतिशत का बदलाव हो सकता है।
बीते दशक में 7 प्रतिशत की वृद्धि हासिल करने वाली तथा उससे पिछले दशक में और तेजी हासिल करने वाली अर्थव्यवस्था के लिए यह बहुत अच्छी दर नहीं है, परंतु हमारे सामने जिस तरह के कठिन विकल्प हैं, उन्हें देखते हुए धीमी वृद्धि को स्वीकार करने के सिवा चारा नहीं है। इस दर से विकसित होती अर्थव्यवस्था को ध्यान में रखते हुए राजस्व अनुमान लगाया भी नहीं जा सकता। ऐसे में हकीकत का सामना करना ही बेहतर है। खासतौर पर तब जबकि बात बजट की तैयारी की हो। बजट में घाटे के आंकड़े को काफी कम करके बताया गया है। यह कमी जीडीपी के 2 प्रतिशत तक है।
हर बजट में संसाधनों की सीमा होती है लेकिन आने वाले बजट में यह संकट भी चरम पर होगा। इस अवधि के पूर्वानुमान काफी उलझाऊ है। खासकर तब जबकि वृद्धि दर को 7 प्रतिशत के वांछित स्तर पर लौटने में समय लगे। वित्त मंत्री को अपने बजट भाषण में यह साफ करना चाहिए कि वे 7 प्रतिशत की दर कैसे हासिल करेंगी। उन्हें धीमी होती अर्थव्यवस्था के गतिशील होने तक हकीकत को अपनाने के लिए वह क्या कदम उठाने जा रही हैं इस बारे में भी उन्हें स्पष्ट बात करना चाहिए।जिससे सरकारी कदमों के बारे में अनुमान लगाया जा सके तो यह हमेशा बेहतर होता था और रहेगा ।
यह सब जानते हैं कि राजस्व में कमी होने पर कटौती की तलवार व्यय पर गिरेगी, भले ही मंदी के मध्य अर्थशास्त्री ऐसी सलाह नहीं दें। यह बात अहम है कि बजटमें एक अनुशासन नजर आए। ऐसे में आवंटन को मौजूदा स्तर पर बरकरार रखना होगा। जो पैसा व्यय न हो वह समाप्त हो जाना चाहिए। जिन क्षेत्रों में बहुत अधिक सार्वजनिक निवेश हो चुका है, उनसे कहा जाना चाहिए कि वे प्रदर्शन में अपेक्षित सुधार करें। रेलवे के राजस्व, राजमार्ग टोल, उच्च बिजली टैरिफ आदि पर वित्त मंत्री कड़ी निगाह डालनी होगी उन्हें और अधिक गैर कर राजस्व की राह निकालने के उपाय करना होंगे। जैसे सरकारी बैंकों के लिए नई पूंजी जुटाने के एक -दो का निजीकरण कर दिया जाना चाहिए। किसी भी सूरत में इसका बोझ करदाताओं पर नहीं डालना चाहिए।
देश के बजट को आधुनिक बनाने का वक्त आ गया है। सबसे पहले नकद अंकेक्षण से संग्रहण अंकेक्षण की ओर बढऩा चाहिए ताकि उन बिलों को शामिल किया जा सके जो बकाया हैं। इसी प्रकार सरकार को बैलेंस शीट से इतर मुद्दों की जानकारी देनी चाहिए जो अब तक बजट का हिस्सा नहीं रहे हैं। देश के नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक द्वारा छिपे हुए व्यय पर सवाल अक्सर उठाया है। मिसाल के तौर पर सरकारी कंपनियों द्वारा बैंकों से पैसे उधार लेकर खाद्य सब्सिडी बिल चुकाना या रेलवे संस्थानों से अग्रिम भुगतान लेना ताकि रेलवे के खाते में घाटा न दिखे जैसे चमत्कार बंद होना चाहिए। यदि इस बार अधिक विश्वसनीय आंकड़े होंगे तो इससे सरकारी कामकाज की पारदर्शिता भी बढ़ेगी।
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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