नई दिल्ली। कश्मीर में पिछले 5 महीने से बंद इंटरनेट के खिलाफ याचिका का फैसला सुनाते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि भारत के संविधान के अनुच्छेद 19 के तहत इंटरनेट भारत के आम नागरिकों का मौलिक अधिकार है। सरकार नागरिकों से उनका मौलिक अधिकार नहीं छीन सकती। (Internet is a fundamental right of common citizens of India under Article 19 of the Constitution of India. Government cannot take away their fundamental rights from citizens.) आपातकाल की स्थिति में कुछ समय के लिए इंटरनेट बंद किया जा सकता है परंतु यह स्थाई नहीं हो सकता। सुप्रीम कोर्ट ने सरकार को आदेश दिया है कि वह 7 दिन के भीतर कश्मीर की स्थिति की समीक्षा करें और इसके बाद आदेश सार्वजनिक करे। फैसला जस्टिस एनवी रमना, जस्टिस सुभाष रेड्डी और जस्टिस बीआर गवई की बेंच ने सुनाया।
शोरशराबा करने वाला प्रशासन अपनी बात माने जाने पर जोर दे रहा था, चाहे वह अच्छी हो या बुरी
फैसले से पहले जस्टिस रमना ने फ्रांसिसी क्रांति के बाद 1859 में लिखे गए चार्ल्स डिकेन्स के मशहूर उपन्यास ‘टेल ऑफ टू सिटीज’ के हवाले से कहा- ‘वह सबसे अच्छा वक्त था, वह सबसे खराब दौर भी था। वह अक्लमंदी का दौर था, वह मूर्खता का भी जमाना था। वह आस्था का युग था, वह अविश्वास का भी दौर था। वह रोशनी का मौसम था, वह अंधकार का भी समय था। वह उम्मीदों का बसंत था, लेकिन वहां सर्द निराशा भी थी। हमारे सामने सब कुछ था, लेकिन हमारे पास कुछ भी नहीं था। हम सभी सीधे जन्नत की तरफ जा रहे थे, लेकिन असल में हम सभी कहीं और जा रहे थे। संक्षेप में कहें तो वह वक्त मौजूदा दौर जैसा था, जब शोरशराबा करने वाला प्रशासन अपनी बात माने जाने पर जोर दे रहा था, चाहे वह बात अच्छी हो या बुरी।'
इंटरनेट एक्सेस पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले की 5 अहम बातें
इंटरनेट के जरिए अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता संविधान के अनुच्छेद 19(1)(a) के तहत मौलिक अधिकार है।
इंटरनेट के जरिए कारोबार करने के अधिकार को भी अनुच्छेद 19(1)(g) के तहत संवैधानिक संरक्षण मिला हुआ है।
इंटरनेट को एक तय अवधि की जगह अपनी मर्जी से कितने भी समय के लिए बंद करना टेलीकॉम नियमों का उल्लंघन है।
स्कूल-कॉलेज और अस्पताल जैसी जरूरी सेवाओं वाले संस्थानों में इंटरनेट बहाल किया जाना चाहिए।
सरकार कश्मीर में जारी पाबंदियों की 7 दिन में समीक्षा करे और पाबंदियों की जानकारी सार्वजनिक करे ताकि आम लोग अगर चाहें तो उन पाबंदियों को कानूनी तौर पर चुनौती दे सकें।
इंटरनेट पर पाबंदी से प्रेस की आजादी प्रभावित होती है
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि कश्मीर के 'नागरिकों को सर्वोच्च सुरक्षा और सर्वोच्च आजादी मिले। कश्मीर ने हिंसा का लंबा इतिहास देखा है। हम कश्मीर में सुरक्षा के साथ-साथ मानवाधिकार और स्वतंत्रता के बीच संतुलन साधने की कोशिश करेंगे। 'भाषण की स्वतंत्रता लोकतांत्रिक व्यवस्था का जरूरी हिस्सा है। प्रेस की आजादी बहुमूल्य और अटूट अधिकार है। जम्मू-कश्मीर में इंटरनेट और कम्युनिकेशन पर पाबंदी का प्रेस की आजादी पर असर पड़ा है।'
नागरिकों की स्वतंत्रता केवल आपातकाल में बाधित की जा सकती है
'किसी भी तरह की स्वतंत्रता पर तभी रोक लगाई जा सकती है, जब कोई विकल्प न हो और सभी प्रासंगिक कारणों की ठीक से जांच कर ली जाए। यह कोर्ट की जिम्मेदारी है कि देश के सभी नागरिकों को बराबर अधिकार और सुरक्षा तय करे, लेकिन ऐसा लगता है कि स्वतंत्रता और सुरक्षा के मुद्दे पर हमेशा टकराव रहेगा।'
विरोध को दबाने के लिए धारा 144 का उपयोग नहीं किया जा सकता
आजादी पर बंदिशें लगाने के लिए या अलग-अलग विचारों को दबाने के हथकंडे के तौर पर धारा 144 का इस्तेमाल नहीं किया जा सकता। मजिस्ट्रेट को निषेधाज्ञा लागू करते समय दिमाग का इस्तेमाल और अनुपात के सिद्धांत का पालन करना चाहिए। इसे हिंसा भड़कने का अंदेशा और सार्वजनिक संपत्ति को हानि पहुंचने के खतरे जैसे इमरजेंसी हालात पर ही लागू करना चाहिए। सिर्फ असहमति इसे लगाने का आधार नहीं हो सकता। लोगों को असहमति जताने का हक है।'
सुप्रीम कोर्ट ने पहली बार इंटरनेट के संदर्भ को अनुच्छेद 19 से जोड़ा
इंटरनेट एक्सेस के संदर्भ में सुप्रीम कोर्ट ने पहली बार मौलिक अधिकार या अनुच्छेद 19 का जिक्र किया है। इससे पहले सुप्रीम कोर्ट ने अप्रैल 2017 में एक फैसले में कहा था कि इंटरनेट एक्सेस नागरिकों का हक है। वहीं, केरल हाईकोर्ट ने सितंबर 2019 में 18 साल की छात्रा की याचिका पर कहा था कि इंटरनेट एक्सेस मौलिक अधिकार है।
कश्मीर में 159 दिनों से इंटरनेट बंद और धारा 144 लागू
कश्मीर में 4 अगस्त यानी 159 दिनों से इंटरनेट बंद है और धारा 144 लागू है। यहां इंटरनेट बंद होने के मायने मोबाइल इंटरनेट और ब्रॉडबैंड, दोनों से हैं। सरकार ने हालात सामान्य होने के बाद जम्मू, लेह-लद्दाख और करगिल से धारा 144 हटा ली थी। जम्मू में भी ब्रॉडबैंड इंटरनेट चालू हो चुका है, लेकिन मोबाइल इंटरनेट बंद है।
गुलाम नबी आजाद और कश्मीर टाइम्स की संपादक ने याचिका दायर की थी
पिछले साल अगस्त में केंद्र सरकार ने जम्मू-कश्मीर में लागू अनुच्छेद 370 को हटा लिया था। इसी के साथ लद्दाख और जम्मू-कश्मीर को दो अलग-अलग केंद्र शासित प्रदेश बना दिया था। इस फैसले के लागू होने के एक दिन पहले यानी 4 अगस्त से कश्मीर में इंटरनेट बंद है और धारा 144 लागू है।
इसी के विरोध में कांग्रेस सांसद और राज्यसभा में विपक्ष के नेता गुलाम नबी आजाद और कश्मीर टाइम्स की संपादक अनुराधा भसीन ने याचिकाएं दायर की थीं। इन्हीं याचिकाओं पर शुक्रवार को जस्टिस एनवी रमना, जस्टिस सुभाष रेड्डी और जस्टिस बीआर गवई की बेंच ने फैसला सुनाया। बेंच ने 27 नवंबर को फैसला सुरक्षित रख लिया था।
गुलाम नबी आजाद की याचिका में दलील दी गई थी कि पाबंदियों से जम्मू-कश्मीर की जनता के जीवनयापन पर असर पड़ रहा है। इससे टूरिज्म, पर्यटन पर असर पड़ा है। अर्थव्यवस्था को नुकसान पहुंच रहा है। बुनियादी स्वास्थ्य और शिक्षा सेवाएं प्रभावित हो रही हैं।
कश्मीर टाइम्स की संपादक ने अपनी याचिका में कहा था कि पाबंदियों के चलते प्रेस की आजादी का भी हनन हुआ।