भोपाल। पण्डित जसराज आज नब्बे बरस के हो गये। वे शतायु हो, जैसी शुभ कामना ऐसी विश्वात्मा के लिए बहुत कम है, फ़िल्मी तर्ज पर साल के दिन हो पचास हजार कहना भी गंभीर शुभकामना व्यक्त करने का तरीका नहीं है। फिर ऐसी प्रतिभा के लिए तो बिल्कुल नहीं जिसने आवाज़ का फैलाव साढ़े तीन सप्तकों तक किया है। जिसके गायन में पाया जाने वाला शुद्ध उच्चारण और स्पष्टता ने मेवाती घराने की 'ख़याल' शैली को और भी विशिष्ट बना दिया है। यह अवसर उन्हें बधाई देने के साथ आभार प्रदर्शन का भी है, जब देश का ‘राग’ ‘बेराग’ हो रहा है तिरंगे में शामिल हरा और केसरिया रंग बिछड़ने के कगार पर है।
समाज की लय बिगड़ रही है, सरकार और प्रतिपक्ष ताल भी तो गलत दे रहे हैं। पंडित जसराज सुर साधते रहे हैं, भारत के सारे नागरिक सम्मान उनके नाम से जुड़ कर शोभायमान हो रहे हैं, अब देश राग सुधारने में ऐसे ही गुणीजन की अगुआई की जरूरत है। पंडित जी के चहेते भोपाल में कम नहीं है, 80 के दशक से मैं भी उनमे शामिल हूँ। “संगीत कला संगम” ने पंडित जी से सानिध्य का मौका तब दिया था। 80 के दशक से पिछले साल तक पंडित जी के आने की खबर 71 बेतवा अपार्टमेंट से मिलती रही है आज भी मिली कि पंडित जी नब्बे बरस के हो गये। 26 जनवरी की सुबह पंडित जी का पूर्व स्वरबद्ध भजन ‘ गोविन्द दामोदर माधवेति’ सुनते समय सोचा था कि शायद अंतर्राष्ट्रीय खगोलीय संघ ने 11 नवंबर, 2006 को खोजे गए एक ग्रह को 'पण्डित जसराज' नाम यूँ ही नहीं दिया है। पंडित जी आवाज चारों दिशा से अब भी आती है और दिल में उतर जाती है |
यूँ तो पंडित जी के कई सारे शिष्य हैं | पर गुरु भी कम नहीं है, उनके पिता पंडित मोतीराम ने मुखर संगीत में दीक्षा दी और बाद में उनके बड़े भाई पंडित प्रताप नारायण ने उन्हे तबला संगतकार में प्रशिक्षित किया। अपने सबसे बड़े भाई, पंडित मनीराम के साथ अपने एकल गायन प्रदर्शन में अक्सर शामिल होते थे। बेगम अख्तर द्वारा प्रेरित होकर उन्होने शास्त्रीय संगीत को अपनाया।
14 साल की उम्र में एक गायक के रूप में प्रशिक्षण शुरू किया, इससे पहले तक वे तबला वादक ही थे। जब उन्होने तबला त्यागा क्योंकि उस समय संगतकारों से सही व्यवहार नहीं किया जाता था। निम्न बर्ताव से अप्रसन्न होकर जसराज ने तबला त्याग दिया और प्रण लिया कि जब तक वे शास्त्रीय गायन में विशारद प्राप्त नहीं कर लेते, अपने बाल नहीं कटवाएँगे। इसके पश्चात् उन्होंने मेवाती घराने के दिग्गज महाराणा जयवंत सिंह वाघेला से तथा आगरा के स्वामी वल्लभदास जी से संगीत विशारद प्राप्त किया।भोपाल रियासत घागे नजीर खान ने उनके हाथ में मेवाती घराने का गंडा बांधा। पंडित मनीराम के बाद पंडित जसराज उनके शिष्य बने। भोपाल एक अजीब शहर है, भोपाल के नवाब ने घागे नजीर खान को जोधपुर से अपने दरबार ओहदा दिया था आज भोपाल में किसी को नहीं मालूम वे किस कब्रिस्तान में आराम फरमा रहे हैं।
पंडित जसराज भी कई बार इस बारे में मालूम कर चुके, पर भोपाल अजीब शहर है। गंगा-जमुनी स्वर लहरी का मेवाती घराने की गायकी भोपाल से लुप्त हो गई। इस घराने के नाम पर अब भोपाल में कुछ कव्वाल हैं। मेवाती घराना संगीत का वो स्कूल है जो 'ख़याल' के पारंपरिक प्रदर्शनों के लिए जाना जाता है। पंडित जी ने ख़याल गायन में कुछ लचीलेपन के साथ ठुमरी, हल्की शैलियों के तत्वों को जोड़ा है| पंडित जसराज ने जुगलबंदी का एक नया रूप तैयार किया, जिसे 'जसरंगी' कहा जाता है, जिसे 'मूर्छना' की प्राचीन प्रणाली की शैली में किया गया है जिसमें एक पुरुष और एक महिला गायक होते हैं जो एक समय पर अलग-अलग राग गाते हैं। वे कई प्रकार के दुर्लभ रागों को प्रस्तुत करने के लिए भी जाने जाते हैं।
अब भोपाल और उसकी संगीत साधना। नवाबी काल की बात तो उपर हो गई। वर्तमान नवाब यानि सरकार के आयोजनों और संस्थानों की संख्या बढ़ी है, पर जनाश्रय से चलते संगीत विद्यालय बंद हो गये है। जनाश्रित आयोजन सिमट गए हैं, सरकारी आयोजन सुनते ही कुछ –कुछ और याद आता है। हम पंडित जसराज को यह शुभकामना हम सब मिलकर दे सकते हैं, कि हम उनके एक उस्ताद की मजार खोज कर उसका पता उन्हें बता दें ।
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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rakeshdubeyrsa@gmail.com
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