वित्त मंत्री निर्मला जी ने बड़ी शान से घोषणा की कि थाली सस्ती हो गई। वे शायद भोजन नहीं करती, थाली खाती है। थाली से उनका क्या अभिप्राय है वो जाने। भोजन से मेरा क्या अभिप्राय है,सब समझते हैं। साफ़ करता हूँ रोटी, दाल सब्जी, प्याज और तो और नमक तक महंगा हो गया है। होटल में आम जनता को 60 रूपये में मिलने वाली, 4 रोटी, 1 कटोरी पनीली दाल, सबसे सस्ती मौसमी सब्जी और अचार जिसमे शामिल होता था अब 90 रूपये में मिल रही है। धातु के जिस बर्तन में इसे रख कर परोसा जाता है उसे थाली कहते हैं। भोजन खाया जाता है, थाली नहीं। थाली जिस धातु स्टेनलेस स्टील से बनती है वो सस्ता हुआ है, यह थाली किसी अडानी, अम्बानी या कोई और नाम के द्वारा बनाई जाती है। देश के अमीर से लेकर गरीब तक जो रोटी, भोजन के रूप में प्याज नमक अथवा सब्जी के साथ खाते हैं महँगी हुई है। इतनी महंगी कि दो जून की रोटी की कहावत बदलने के दिन आ गये हैं।
रोटी से मेहनत और मेहनत से जीडीपी जुडी है। वित्त मंत्री जी को भरोसा है जीडीपी बढ़ेगी, दिल बहलाने को ये ख्याल अच्छा है। रोटी से अर्थ रोजगार की उपलब्धता भी है। बेरोजगारी के आंकड़े जग जाहिर है और इससे ही जुडी है जीडीपी। सरकारी आंकड़ों के अनुसार, जीडीपी विकास दर 4.5 प्रतिशत के आसपास पहुंच गई है, लेकिन इस आंकड़े की विश्वसनीयता पर सवाल हैं,इस पर उंगली उठा रही हैं। पिछली सरकार में मुख्य आर्थिक सलाहकार रहे कृष्णमूर्ति सुब्रमण्यम ने एक अध्ययन-पत्र तैयार किया था, जिसमें उन्होंने बताया कि सरकार जीडीपी विकास दर को ढाई प्रतिशत बढ़ाकर बता रही है। इसका अर्थ यह हुआ कि हमारी अर्थव्यवस्था दो प्रतिशत की विकास दर से बढ़ रही है। एक अन्य अर्थशास्त्री अरुण कुमार का कहना है कि जीडीपी विकास दर इतनी भी नहीं है। असंगठित क्षेत्र, जिसमें कृषि भी शामिल है, की विकास दर आधा प्रतिशत के करीब है। कुल मिलाकर, अनेक आर्थिक विशेषज्ञ बता रहे हैं कि विकास दर के आंकड़े बढ़ाकर दिखाए गए हैं। सच क्या है निर्मला जी जाने।
नोटबंदी और फिर जीएसटी जैसे बड़े कदमों का असर आज भी अर्थव्यवस्था पर दिख रहा है। आज भारत में उत्पादन और मांग में जो फर्क आया है, वह डराता है। भारत के इतिहास में पहली बार कंपनियों ने बिजली उत्पादन को कम कर दिया है, डीजल का उपभोग भी कम हुआ है। ऐसा कब होता है? विकास को गति देने के लिए बिजली और डीजल की खपत तो बढ़नी चाहिए थी, लेकिन घट कैसे रही है? आज आपके पास पैसा नहीं है। सरकार के पास भी पैसा नहीं है। संपत्ति बेचने की तैयारी दिखती है।
सवाल यह है कि जब सरकार के पास मनरेगा के लिए पैसा नहीं है, उज्जवला व ग्राम सड़क योजना पर कैसे खर्च होगा? जन धन योजना और स्वच्छ भारत के लिए कैसे खर्च बढ़ेगा? इन हालातों में तो सरकार को वित्तीय घाटा बढ़ाना ही पड़ेगा\ इसका बोझ सरकारी उपक्रमों पर आएगा। जो सरकारी संस्थाएं व उपक्रम सरकार की योजनाओं से जुड़े हैं, उन पर दबाव बढ़ेगा। सरकारी आंकड़े बता रहे हैं कि कर्ज के कारण बैंक मुश्किल में हैं। ऋण नहीं दे रहे हैं। निजी क्षेत्र में निवेश की कई योजनाएं ठंडे बस्ते में चली गईं। गैर-बैंकिंग कंपनियां डूब रही हैं।
खरीद-बिक्री में मांग नहीं बढ़ रही है। बिस्कुट से लेकर टूथपेस्ट खरीदने के लिए भी पैसे की कमी हो गई है। लोगों के पास वाहन खरीदने के लिए पैसे नहीं हैं। कुल मिलाकर खरीद-बिक्री घटेगी, तो जीडीपी का विस्तार कैसे होगा? सरकार को भान होना चाहिए कि युवाओं में नाराजगी उभरने लगी है। १३५ करोड़ लोगों के देश में करीब ६५ करोड़ युवा हैं, उनका भविष्य कैसा है? क्या पहले कभी इतनी बेरोजगारी थी?
पिछली बार की बात फिर दोहराई गई है कि किसानों की आय दोगुनी हो जाएगी। प्रधानमंत्री किसान योजना की बात करें, तो लक्ष्य से लगभग आधे ७.५ करोड़ किसानों को ही लाभ मिल रहा है। अब फिर बजट पेश , फिर दावे और प्रचार भी | खुद को सफल बताने की कोशिशें ,इसे क्या कहें समझ से परे है | आपकी सस्ती महंगी थाली आपको मुबारक | हमे चैन से २ रोटी खा लेने दीजिये।
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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