एक नया सर्वेक्षण सामने आया है कि आर्थिक स्थिति, कीमतों और पारिवारिक आमदनी को लेकर लोगों का रुख पिछले साल की तुलना में कमजोर है| अर्थव्यवस्था में कमजोरी के मौजूदा दौर से उबरने के लिए उपभोग में बढ़ोतरी करना बहुत जरूरी है, लेकिन ऐसा कर पाना एक बड़ी चुनौती से कम नहीं है| रिजर्व बैंक के ताज़ा सर्वे के मुताबिक उपभोक्ताओं की मनोदशा निराशा से ग्रस्त है और हालत यह कि. यह निराशा मार्च, २०१५ के बाद से सबसे उच्च स्तर पर है| निराशा का यह सूचकांक जनवरी में ८३.७ तक आ गया है| सरकार को सोचन चाहिए।
इसमें 100 की संख्या निराशा व आशा के बीच के विभाजन को इंगित करती है| देश के १३ बड़े शहरों के परिवारों के सर्वेक्षण के आधार पर बैंकों का कहना है कि आर्थिक स्थिति, कीमतों और पारिवारिक आमदनी को लेकर लोगों का रुख पिछले साल की तुलना में कमजोर है तथा वे जरूरी चीजों के अलावा अन्य खरीद पर कम खर्च कर रहे हैं| इसका नकारात्मक असर उत्पादन पर भी पड़ा है और कंपनियां इसमें कटौती कर रही हैं| केंद्रीय बैंक के एक अन्य सर्वेक्षण में बताया गया है कि कंपनियों की क्षमता के उपयोग का स्तर गिर कर ६९.१ प्रतिशत रह गया है, जो पिछले साल अप्रैल-जून की अवधि में ७३.६ प्रतिशत था| इसका मतलब यह है कि वास्तविक उत्पादन और संभावित उत्पादन के बीच दरार बढ़ती जा रही है।
यह सब इस बात को प्रमाणित करती है कि कुल मिला कर हमारी अर्थव्यवस्था के विस्तार की गति २००९ के बाद सबसे कम है| इन आंकड़ों के साथ अगर बचत में कमी को भी रख लें, तो अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने और उसे तेज गति देने से जुड़ी आशाएं कुछ कमजोर पड़ती दिखाई दे रही हैं| इस संदर्भ में वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण द्वारा पेश बजट बेहद अहम हो जाता है और उसमे कोई दिशा नहीं सूझती है।
आयकर दरों में कटौती और चुकौती के लिए दो विकल्प देने जैसे उपायों से आगामी वित्त वर्ष में उपभोग बढ़ाने में मदद मिल सकती है, क्योंकि तब लोगों के हाथ में नकदी की मात्रा बढ़ने की उम्मीद है, जिसे वे बाजार में खर्च कर सकेंगे, पर यह भी देखना होगा कि आयकर की निचली श्रेणियों में से कितने लोग नया विकल्प चुनते हैं, जिसमें बचत पर छूट नहीं मिलेगी। खर्च करने लायक नकदी कम होने का सीधा असर उपभोक्ता वस्तुओं के बाजार पर पड़ा है।
कई वर्षों से यह सेक्टर अर्थव्यवस्था के सबसे तेज विस्तार के क्षेत्रों में रहा है, लेकिन जहां इसकी वृद्धि दर २०१८ में १३.५ प्रतिशत थी, वह २०१९ में घट कर ९.७ प्रतिशत रह गयी थी। कुछ श्रेणियों में तो यह गिरावट बेहद गंभीर रही है। चालू वित्त वर्ष में इसके और कम होने की आशंका है। इस क्षेत्र में ग्रामीण मांग का हिस्सा बाजार का एक-तिहाई है और बहुत समय से उसकी बढ़ोतरी शहरी इलाकों से अधिक दर से होती रही थी, लेकिन खेती से होनेवाली आमदनी घटने और ग्रामीण संकट का प्रभावी समाधान न हो पाने की वजह से उसमें लगातार कमी आ रही है| सरकार और वित्त विशेषग्य कोई नया विकल्प भी नहीं सुझा प् रहे हैं। बजट में किसानों को प्राथमिकता दी गयी ह,परन्तु हमें इसके नतीजों का इंतजार करना पड़ेगा और करना भी चाहिए| कृषि तो हमारी आर्थिक व्यवस्था की रीढ़ है , रोजगार, आमदनी और खर्च का हिसाब एक-दूसरे से जुड़ा हुआ है। ऐसे में सरकार और कारोबारी जगत को तालमेल के साथ आगे बढ़ना चाहिए| मंदी का राग ज्यादा दिन नहीं चलेगा कुछ करना होगा और जल्दी करना होगा।
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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