क्या करें, किससे गुहार लगायें ? देश के उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों के ३६ प्रतिशत पद खाली हैं। पटना और राजस्थान उच्च न्यायालयों में ५० प्रतिशत से अधिक रिक्तियां हैं। इनका खमियाजा पूरी न्यायिक व्यवस्था और न्याय की आस में अदालतों के दरवाजे खटखटाते लोगों को भुगतना पड़ रहा है। स्थिति की गंभीरता का अंदाजा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि देश के उच्च न्यायालयों में करीब ४३ लाख मुकदमे लंबित है, जिनमें से आठ लाख से ज्यादा मामले दस साल से भी ज्यादा पुराने हैं।
राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग अधिनियम, २०१४ में संसद के दोनों सदनों द्वारा सर्वसम्मति से पारित हुआ था और आयोग अधिनियम, तथा उच्चतम व उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति प्रक्रिया को व्यापक आधार देने का प्रावधान किया गया था। न्यायपालिका, कार्यपालिका के साथ-साथ ख्यात बुद्धिजीवियों की सहभागिता से नियुक्ति प्रक्रिया को अधिक पारदर्शी व जवाबदेह बनाने की यह कवायद थी। मगर इस अधिनियम को संविधान पीठ द्वारा अवैध करार दिया गया और इसे न्यायपालिका की स्वतंत्रता को प्रभावित करने से जोड़कर संविधान की मूल भावना के खिलाफ बताया गया।
भारत के संविधान में उच्चतर न्यायपालिका में नियुक्ति का अधिकार स्पष्टत: राष्ट्रपति को दिया गया है। राष्ट्रपति द्वारा आवश्यकता समझने पर देश के प्रधान न्यायाधीश से परामर्श लेने का प्रावधान है। विभिन्न फैसलों के आधार पर इसका स्वरूप परिवर्तित करते हुए परामर्श लेने की प्रक्रिया को अनिवार्य बना दिया गया। प्रधान न्यायाधीश का तात्पर्य उच्चतम न्यायालय की संस्था के रूप में बताते हुए पांच जजों के एक कॉलेजियम की अवधारणा स्थापित की गई। इस प्रकार, संविधान में बिना उल्लेख के कॉलेजियम एक निकाय के रूप में अस्तित्व में आ गया। फिर कॉलेजियम की अनुशंसा को राष्ट्रपति के लिए बाध्यकारी बना दिया गया।
इसकी विभिन्न व्याख्याओं से संविधान की मूल प्रावधानित व्यवस्था का ही रूपांतरण हो गया। मूल व्यवस्था में नियुक्ति संबंधी अंतिम निर्णय का अधिकार राष्ट्रपति को प्राप्त था। नई व्यवस्था में अंतिम निर्णय कॉलेजियम का होता है, जो संविधान की मौलिक अवधारणा से अलग है।
न्यायाधीशों की नियुक्ति करने तथा जरूरी संसाधनों की व्यवस्था करना कार्यपालिका और न्यायपालिका के जिम्मे है, लेकिन यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि गाहे-बगाहे ऐसे मसलों पर सरकार और सर्वोच्च न्यायालय के बीच ठन जाती है तथा ये दोनों संस्थाएं खाली पदों में हो रही देरी के लिए एक-दूसरे को जिम्मेदार ठहराने लगते है| महाधिवक्ता केके वेणुगोपाल ने सर्वोच्च न्यायालय में बताया है कि उच्च न्यायालय कॉलेजियम से नाम निर्धारित होने के बाद उच्च न्यायालय के एक न्यायाधीश की नियुक्ति में औसतन ३३७ दिन यानी लगभग एक साल का समय लग जाता है|
नाम आने के बाद सरकार औसतन १२७ दिन में निर्णय लेकर सर्वोच्च न्यायालय के कॉलेजियम को भेज देती है| इस कॉलेजियम को फैसला लेने में ११९ दिन लगते हैं. फिर तय नाम सरकार के पास जाता है, जो फिर ७३ दिन का समय लगाती है| इसके बाद १८ दिनों के औसत समय में राष्ट्रपति व प्रधानमंत्री अपनी मंजूरी देते हैं|
अभी आलम यह है कि ३९६ में से १९९ रिक्तियों के लिए उच्च न्यायालय कॉलेजियम ने कोई नाम ही नहीं दिया है| कई बार तो ऐसा होता है कि यह कॉलेजियम पद खाली होने के पांच साल बाद नयी नियुक्ति के लिए अपनी अनुशंसा सरकार के पास भेजता है| अभी स्थिति यह है कि सर्वोच्च न्यायालय कॉलेजियम के पास ८० नामों तथा सरकार के पास ३५ नामों के प्रस्ताव विचाराधीन हैं|
इससे स्पष्ट है कि पदों को भरने में विलंब का दोष दोनों ही पक्षों का है| यह तथ्य भी संज्ञान में लिया जाना चाहिए कि सरकार को नाम मिलने के बाद संबद्ध व्यक्ति के बारे में राज्यों से सूचनाएं जुटाने में समय लगता है, इस लिहाज से उसकी ओर से हुई देरी एक हद तक तार्किक है. अक्सर जजों की कमी की शिकायत करनेवाली न्यायपालिका ने अपने स्तर पर प्रक्रिया को दुरुस्त करने की ठोस पहल नहीं की है, जबकि यह समस्या नयी नहीं है. देरी की एक वजह कॉलेजियम और सरकार के बीच नामों पर सहमति नहीं बनना भी है|
खबर है कि अभी जो नाम सरकार के पास है, उनमें से केवल १० नामों पर सहमति है| अन्य नामों पर खींचतान के समाधान में बहुत समय लग सकता है या फिर से नयी अनुशंसा की जरूरत होगी| उम्मीद है कि वर्तमान सुनवाई में सरकार और न्यायालय एक ठोस प्रक्रिया तय कर सकेंगे और भर्ती की प्रक्रिया तेज होगी और मुकदमो का निपटारा होगा।
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।