कांग्रेस : शीर्ष परिवार के संकट | EDITORIAL by Rakesh Dubey

Bhopal Samachar
कांग्रेस में फिर से राहुल युग की वापिसी के संकेत मिल रहे है | उनकी माँ ने उनको राजनीति में प्रवेश के दौरान जयपुर में मन्त्र दिया था “राजनीति जहर है” | अपनी पहली पारी के हश्र के बाद की वितृष्णा ने सोनिया गाँधी को पुन: कमान सौपने के लिए जिन घाघ नेताओं ने उन्हें उकसाया था, वे ही अब उन्हें समझा रहे हैं कि ‘इस बार राहुल बाबा आप नील कंठ हो जाओगे|” कांग्रेस का सद्गुण और अवगुण दोनों इस बात में समाहित है कि पार्टी, पार्टी की तरह नहीं चलनी चाहिए |

राहुल गाँधी ही वो नेता है जिसने सबसे पहले पार्टी में आंतरिक लोकतंत्र की बात की। उन्होंने कहा कि पार्टी में ज्यादा लोकतंत्र होना चाहिए। ऐसे में पार्टी संगठन से कहा गया कि वह प्राइमरीज का आयोजन करे जहां ज्यादा पार्टी कार्यकर्ताओं के ज्यादा वोट पाने वाले नेताओं को ही अगले लोकसभा चुनाव में पार्टी का टिकट मिलेगा। प्राइमरीज में जीत हासिल करने वाले लोगों में से कई पुराने कांग्रेस नेताओं के बच्चे थे। दूसरी या तीसरी पीढ़ी के कांग्रेसियों की तरह उन्हें भी वफादारी और संरक्षण हासिल था। ऐसे में प्राइमरीज में हारने का मतलब था, पारिवारिक विरासत गंवाना। ऐसे में जो लोग पार्टी का यह आंतरिक चुनाव जीतने में कामयाब रहे, वहीं वे असली चुनाव में हार गए। ऐसे में कांग्रेस को मां-बेटे की पार्टी से अलग छवि देने का ईमानदाराना प्रयास नाकाम रहा। कारण सब जानते हैं| कांग्रेस हो या भाजपा पहला सिद्धांत देश की राजनीति “पहले मैं या मेरा परिवार” हो गया है | घाघ कांग्रेसी इससे पार्टी को मुक्त नहीं होने देना चाहते |

चुनावों में हार के बाद कांग्रेस के सामने सवाल यह भी था कि पार्टी को आखिर किसे चुनना चाहिए। राहुल को? या सोनिया को? या फिर प्रियंका को? और भविष्य की संभावना, रॉबर्ट? पार्टी को धर्मनिरपेक्षता की राह पर आगे बढऩा चाहिए? या समाजवाद की? या कुछ-कुछ दोनों? जाहिर है इससे कुछ नहीं होना था क्योंकि नरेंद्र मोदी की राजनीतिक काट कोई व्यक्ति ही हो सकता है, कोई विचार या मुद्दा नहीं? इस विषय पर भी अत्यधिक भ्रम की स्थिति है। राहुल कहते हैं कि वह पूरे मसले से बाहर हैं लेकिन ऐसा है नहीं। उनके द्वारा चुने हुए लोग ही प्रियंका के सलाहकार हैं। अहम नियुक्तियों में उनके सलाहकारों की बात सुनी जा रही है। इससे अलहदा बात तो उनकी भी सुनी जा रही है जो सोनिया के वफादार होने का दम भरते हैं। ऐसे में पार्टी कार्यकर्ता इस बात को लेकर भ्रमित हैं कि आखिर निर्णय कौन ले रहा है?

सही सलाह भी घाघ मंडली के गले नहीं उतरती जब जयराम रमेश ने कहा कि विपक्षी दल को सरकार द्वारा जनहित में लिए गए निर्णयों की सराहना करनी चाहिए तो वीरप्पा मोइली और कपिल सिब्बल ने तत्काल उनकी बात का विरोध किया। जब मिलिंद देवड़ा ने आम आदमी पार्टी के राजकोषीय विवेक के लिए उसकी तारीफ की तो अजय माकन ने उनका गला पकड़ लिया और कहा कि वह कांग्रेस छोड़ दें। ठीक इसी तरह शर्मिष्ठा मुखर्जी ने पी चिदंबरम की आलोचना की क्योंकि वह दिल्ली चुनाव में आप की जीत से उत्साहित थे। इस दौरान सामान्य कांग्रेस कार्यकर्ता असहाय होकर देखते रहते हैं । काफी हद तक टेनिस मैच के दर्शकों की तरह। कभी कभार, कुछ तो खुलकर कहते हैं कि इधर उधर देखते-देखते उनकी गरदन में दर्द होने लगा है।

कांग्रेस के लिए शीर्ष [गाँधी ]परिवार ही अपील की आखिरी अदालत है। वही बराबरी वालों में सबसे श्रेष्ठ है। यदि गांधी परिवार नहीं होगा तो सभी नेता समान होंगे। यदि सभी नेता समान होंगे तो कोई भी कांग्रेस का नेतृत्व कर सकता है। इतिहास गवाह है कि हर बार जब शीर्ष परिवार पार्श्व में गया तो कांग्रेस का बंटवारा हुआ। यह बात आम कांग्रेसी को एक असहज करने वाले नतीजे पर पहुंचाती है। और वह बात यह है कि देश के सबसे अधिक आबादी वाले लोकतंत्र में सबसे बड़ी राजनीतिक ताकतों में से एक का नेतृत्व केवल एक परिवार कर सकता है। क्या उस परिवार के पास  यह शक्ति नहीं है कि वह खुद को उस जवाबदेही से मुक्त कर सके। फिलहाल ऐसा होता हुआ नजर नहीं आता। घाघ कांग्रेसी शीर्ष परिवार को छोड़ेंगे नहीं।
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
संपर्क  9425022703        
rakeshdubeyrsa@gmail.com
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