अभी CAA, NRC, NPR जैसे मसले उलझे हुए हैं। एक खबर जोरो पर है कि सरकार ऐसा कानून बनाने की तैयारी में है जिसमें विशिष्ट पहचान सुनिश्चित करने वाले आधार क्रमांक को मतदाता पहचान-पत्र से जोडऩे का प्रावधान होगा। अगर इस तरह का कोई निर्णय हुआ तो इसके पीछे की सरकार की मंशा क्या है ? समझना आसान है।
अभी तमाम सरकारी कार्यक्रमों के लाभार्थियों का दोहराव रोकने के लिए आधार डेटा का इस्तेमाल किया गया है। ऐसी स्थिति में अफसरशाही आधार क्रमांक और मतदाता पहचान-पत्र जोडऩे को सरकारी कार्यक्रमों और मतदान के लिए योग्य भारतीयों की एक संपूर्ण सूची तैयार करने की दिशा में इसे सिर्फ अगले कदम के तौर पर देख रही है। अभी यह भी सोचना कि आधार और मतदाता पहचान-पत्र जोडऩे के कई ऐसे नतीजे भी होंगे जिनका ध्यान न रखने पर मामला किसी ओर दिशा में जा सकता है। निश्चित रूप से आधार के उपयोग से एक से दूसरे निर्वाचन-क्षेत्र में जाने वाले मतदाताओं को राहत मिल सकती है। इससे उन लोगों को फायदा होगा जिन्हें आर्थिक एवं अन्य कारणों से अपना गृह-क्षेत्र छोड़कर दूसरी जगह जाना पड़ता है। आधार से मतदाता पहचान-पत्र जुड़े होने से वे नई जगह पर भी मतदान आसानी से कर पाएंगे।
निश्चित रूप से यहां पर यह सवाल भी पूछा जाना चाहिए कि सरकार एक ऐसी चीज को क्यों अनिवार्य बनाना चाहती है जिसे मौलिक रूप से पूरक माना गया था? अगर आधार की संकल्पना एक ऐसे तरीके के तौर पर की गई है जिसके माध्यम से कोई दूसरा पहचान-पत्र नहीं रखने वाला व्यक्ति भी निर्वाचन अधिकारियों के समक्ष अपनी पहचान साबित कर सकता है तो फिर इसे गलत नहीं कहा जा सकता है, लेकिन अगर इसे एक संभावित मतदाता की राह में खड़े होने वाले एक और अवरोध के तौर पर देखा जा रहा है तो फिर अलग बात है। उस स्थिति में मताधिकार का दायरा व्यापक करने का मकसद ही पूरा नहीं होता है। यहां यह प्रश्न केंद्र में आ जाता है कि सरकार नागरिकों के आंकड़े तक क्यों और कैसे पहुंच रख सकती है? अगर नागरिकों के बारे में जुटाए गए आंकड़े तक पहुंच और उपयोग पर नियंत्रण के तरीके तय करने वाला समुचित कानून बन जाता है तो फिर मतदाता खुद को अशक्त या भयभीत नहीं महसूस करेगा। इस संदर्भ में ब्लॉकचेन तकनीक के उपयोग को लेकर चर्चा हुई है। सरकार के सलाहकार इसे निरापद पद्धति मान रहे हैं।
वस्तुत: चाहे जिस तकनीक का इस्तेमाल हो रहा हो, अगर नागरिकों से संबंधित आंकड़े कूटबद्ध रूप में रखे गए हैं तो फिर निश्चित तौर पर आपत्तियां कम होंगी। इसके अलावा ऐसे संवेदनशील क्षेत्र में आधार के इस्तेमाल को पहले प्रायोगिक स्तर पर परख लेना चाहिए। इसे बेहद सीमित पैमाने पर परखे जाने के पहले एक साथ पूरे देश या एक राज्य में भी नहीं लागू कर देना चाहिए। अभी तक यह साफ हो जाना चाहिए कि आधार के जरिये बड़े पैमाने पर सत्यापन करना भी कोई कम-जटिल कवायद नहीं है। मतदाता सूची में संशोधन जैसे संवेदनशील मामलों को सूची से बाहर किए जा रहे लोगों का ध्यान रखे बगैर आधार प्रक्रिया के भरोसे नहीं छोड़ा जाना चाहिए। क्रमिक क्रियान्वयन या प्रायोगिक कार्यक्रमों से पता चल सकता है कि कौन लोग बाहर हो रहे हैं?
वैसे तो अपनी शक्ति और श्रम बचाने के लिए अफसरशाह आधार कार्ड के ऐसे उपयोगों के बारे में सुझाव देते रहेंगे जब तक कि सरकार द्वारा जुटाए गए नागरिकों के निजी डेटा के इस्तेमाल को लेकर कोई स्पष्ट कानून नहीं बन जाता है, लेकिन आज के समय में यह एक निरर्थक उम्मीद ही लगती है। लिहाजा नागरिक डेटा के उपयोग के बारे में सरकार की शक्तियां सीमित करने वाले कानून को लाए जाने की संभावना बेहद कम ही है। लेकिन ऐसा होने पर भी सरकार और चुनाव आयोग को सत्यापन के इकलौते जरिये के रूप में आधार कार्ड पर निर्भरता बढऩे के खतरों को भी समझना होगा।
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।