नई दिल्ली। एमपीलैड (सांसद स्थानीय क्षेत्र विकास योजना कार्यक्रम) के बारे में महत्वपूर्ण जानकारी सामने आई है। एमपीलैड के तहत जारी कुल राशि में 5275 करोड़ रुपये खर्च नहीं किये गये। आंकड़े पुराने हैं,पर आँखें खोल देने के लिए काफी हैं। वर्ष 2014 में चुने गये सांसदों ने 2004 और 2009 में चुने गये सांसदों के मुकाबले अपने फंड का प्रभावी तरीके से इस्तेमाल ही नहीं किया। एमपीलैड योजना के तहत 15वीं से 16वीं लोकसभा के बीच खर्च न की जानेवाली राशि में 214 प्रतिशत से अधिक की बढ़ोतरी हुई। जबकि, सांसद द्वारा स्थानीय स्तर पर शिक्षा, स्वास्थ्य, स्वच्छता, कृषि और सड़कों आदि के विकास के लिए इस राशि को खर्च किया जाना चाहिए| इस योजना के दिशा-निर्देशों के अनुसार, स्थानीय स्तर पर सार्वजनिक हितों को ध्यान में रख कर इस राशि का इस्तेमाल किया जाये, लेकिन ऐसा हुआ नहीं।
सांसदों को दी जानेवाली इस राशि से जुड़ा मामला जब सर्वोच्च न्यायालय में गया, तो न्यायालय को बताया गया कि सांसद तो केवल विकास कार्यों के लिए अपना सुझाव देते हैं। विकास कार्य को करने की जिम्मेदारी तो सरकारी अधिकारियों की होती है। व्यावहारिक तौर पर देखें, तो ऐसा कौन सा आइएएस ऑफिसर है, जो अपने क्षेत्र के सांसद की बात नहीं मानेगा। कुल मिलाकर यह सांसदों और विधायकों को जनता का पैसा देने का एक तरीका है| वैसे यह प्रक्रिया ही असंवैधानिक है, लेकिन जब सर्वोच्च न्यायालय ने इसे मंजूरी दी है, तो इस पर सवाल कैसे उठाया जा सकता है।वस्तुत: इस योजना के तहत जारी होनेवाला काफी फंड विकास कार्यों के लिए खर्च ही नहीं किया जाता। दूसरी जो फंड खर्च भी किया जाता है, वह किस तरह के कार्यों पर किया जाता है, इसकी भी जानकारी जरूरी है। इस योजना के तहत किये गये कार्यों का फायदा किसे होता है, इस पर भी विचार जरूरी है।
एक उदहारण एक सासद ने एक सूखे हुए पार्क में पानी का फव्वारा लगवा दिया। वहां लोगों के पास पीने का पानी नहीं था, तो फव्वारे के लिए पानी कहां से पहुंचता। कुछ लोगों का कहना था कि फव्वारा लगानेवाला ठेकेदार उस माननीय का रिश्तेदार था। स्थानीय स्तर पर ऐसे विकास कार्य हो जिससे आमजन को फायदा हो, तो इस राशि की सार्थकता है, जोकि इस योजना के उद्देश्य में निहित है, अन्यथा पैसे का दुरुपयोग ठीक नहीं है।
एमपीलैड के तहत जारी पैसा किस तरह से खर्च किया जाता है, यह छिपी हुई बात नहीं है, लोगों को इसकी जानकारी होती है। इसके विपरीत इसका एक दूसरा पहलू भी है। कुछ ऐसे सांसद भी हैं, जो अपने क्षेत्र में विकास के लिए इस राशि का ईमानदारी से इस्तेमाल करते हैं। जो सांसद अच्छा काम करते हैं, वे गिने-चुने ही हैं, ज्यादातर सांसद इन पैसों का गलत ही इस्तेमाल करते हैं। भारत का दुर्भाग्य है कि लोग अपने स्तर पर अच्छाई के लिए भी आगे नहीं आते और जब किसी योजना पर सुप्रीम कोर्ट की मुहर लगाजाये , तो यह चलता ही रहेगा।एमपीलैड की काफी राशि बची रह जाती है। सरकार भी यह कह कर पल्ला झाड़ लेती है कि गलत इस्तेमाल से यह बेहतर ही है। वैसे यह साफ दिख रहा है कि एमपीलैड जनता के पैसे का दुरुपयोग है।
इसका ज्यादा कोई फायदा फिलहाल होता नहीं दिख रहा है होना तो यह चाहिये कि जन प्रतिनिधि विकास के कार्य ईमानदारी से करें उन्हें संसद में बैठकर कानून बनाने के साथ स्थानीय स्तर पर शिक्षा, स्वास्थ्य, स्वच्छता, कृषि और सड़कों आदि के विकास के लिए इस राशि को खर्च करना चाहिए| इससे जुड़े अध्ययन करने चाहिए| अपने क्षेत्रों में जाकर लोगों से मिलना चाहिए और यह पूछना चाहिए कि उनकी क्या अपेक्षाएं हैं. यह सब ये लोग करते नहीं हैं| जिस योजना में खर्च न की जानेवाली राशि में 214 प्रतिशत से अधिक की बढ़ोतरी हो उससे कोई फायदा है शायद नहीं।
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।