डूबते बैंक और सोती सरकार | EDITORIAL by Rakesh Dubey

नई दिल्ली। वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने कहा है कि 'हम किसी भी संस्थान को बर्बाद नहीं होने दे सकते।' यह एक आश्वासन है और हर आश्वासन शब्दों पर नहीं, बल्कि अतीत की कार्रवाइयों पर निर्भर करता है। वित्त मंत्री चाहती, तो अपने मंत्रालय के अधिकारियों और विनियामक रिजर्व बैंक से इससे पहले डूब चुके बैंकों और गैरबैंकिंग वित्तीय संस्थानों की स्थिति की जांच करवा सकती थी और अभी भी यह अधिकार उनके पास सुरक्षित है| कोई नहीं बता सकता की केंद्र सरकार इन जांचों से क्यों बच रही है। साथ ही यह भी साफ होना चाहिए सरकार की रूचि किसे बचाने में है और क्यों ?

2018 में इन्फ्रास्ट्रक्चर लीजिंग ऐंड फाइनेंशियल सर्विसेज (आईएल ऐंड एफएस), 2019 में दीवान हाउसिंग फाइनेंस कॉरपोरेशन (डीएचएफएल), और हाल ही में पंजाब ऐंड महाराष्ट्र कोऑपरेटिव बैंक (पीएमसी बैंक) डूब गए। इन सब की कथा एक समान कथानक का अनुसरण करती है-प्रचार, अति आत्मविश्वास और त्रुटिपूर्ण वित्तीय मॉडल। वित्तीय क्षेत्र में अतिसंवेदनशीलता को तत्परता और खुलासे के स्तर से परिभाषित किया जाता है। आम तौर पर संस्थान के पतन की शुरुआत रिश्वत और धन के अवैध हस्तांतरण से होती है, उसके बाद प्रवर्तन निदेशालय द्वारा मनी लॉन्डरिंग के मामले दर्ज किए जाते हैं। ये सालों चलते हैंऔर की मामलों में परिणाम शून्य निकलता है।

आईएल ऐंड एफएस का पतन जो मुंबई शेयर बाजार को लिखी दो पंक्तियों के पत्र से शुरू हुआ था, जिसमें आईडीबीआई बैंक द्वारा जारी किए गए लेटर ऑफ क्रेडिट का भुगतान करने में उसने अपनी असमर्थता व्यक्त की थी। आईएल ऐंड एफएस के पतन के करीब 18 महीने बाद भी कर्ज देने वालों (क्रेडिटर्स), बैंक और म्यूचुअल फंड और जमाकर्ताओं को बैंक से अपना पैसा नहीं मिला। पुराने जमाने में कहा जाता था कि 'आप कतार में हैं', लेकिन नए जमाने में किसी को नहीं पता कि कतार कहां से शुरू होती है। कई बार किसी बड़े नाम के बंगले से भी हो सकती है।

डीएचएफएल की बर्बादी आईएल ऐंड एफएस के पतन से पूरी तरह से असंबद्ध नहीं थी। आईएल ऐंड एफएस की तरह हाउसिंग फाइनेंस संस्था डीएचएफएल का भी गलत नीतियों और भयावह प्रबंधन के कारण पतन हुआ। जिस तरह का विवाद और चर्चा आईएल ऐंड एफएस को लेकर दिखती है, डीएचएफएल भी वित्तीय बाजार का एक बड़ा खिलाड़ी था। मार्च, 2020 तक न तो डीएचएफएल के क्रेडिटर्स और न ही जमाकर्ताओं को इसमें अटके अपने करीब 5000 करोड़ रुपये वापस मिल सके हैं।

पीएमसी बैंक, भी ढहते हुए डीएचएफएल से संबद्ध था, डगमगाने के कगार पर था और जब उसकी बैलेंस शीट में अनपेक्षित गड़बड़ियां (उधार देने वाले से उधार लेने वाले तक, स्पष्ट रूप से संदिग्ध राजनीतिक कनेक्शन के साथ प्रोमोटरों के आश्वासन पर एक ही उधारकर्ता को 73 प्रतिशत कर्ज दिए गए) पाई गईं, तो उसका पूरी तरह से पतन हो गया। जीवन गंवाने और आंदोलन करने के बावजूद छह राज्यों के बचतकर्ताओं के दुखों का अभी अंत नहीं हुआ है।यस बैंक की कहानी इन उदाहरणों से अलग नहीं है।

पतन की यह की इस औपन्यासिक कथा के मूल में नियामकों का वह दोष है जिसने यह जानने में कभी दिलचस्पी नहीं दिखाई कि बाजार क्या जानता है और क्या प्रतिक्रिया दे रहा है। वित्तीय बाजार और संस्थान सिलसिलेवार ढंग से एक दूसरे से जुड़े हैं। एक खामी से पूरी श्रखला काम करना बंद कर देती है। 28 खरब डॉलर की अर्थव्यवस्था, लगातार बैंकों के डूबने को बर्दाश्त नहीं कर सकती है। बहस इस बात को लेकर नहीं है कि क्या इसे नहीं रोका जा सकता है, बल्कि इस बात को लेकर है कि क्या किया जा सकता था, जो नहीं किया गया।
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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