नई दिल्ली। देश संकट से और मौजूदा सरकार आलोचना के दौर से गुजर रही है। पता नहीं देश की तासीर कैसी होती जा रही है, आलोचना हमारे संस्कारों में बस गई है। किसी भी काल के नेतृत्व को उठा लें, उसके आलोचक मिल जायेंगे और आलोचना ऐसी करेंगे कि बस। वस्तुत: जब भी कोई संकट आता है तो व्यवस्था की खूबियां और खामियां उजागर होती हैं। ईमानदारी की बात यह है कि मौजूदा समस्या भारत की खड़ी की हुई नहीं है, लेकिन इसका एक महत्वपूर्ण पक्ष यह भी है कि यदि हमारी सरकारी ने व्यवस्था बेहतर होती तो हम इससे बेहतर तरीके से निपट पाते और नागरिकों पर इसका कम असर होता।
हर काल की कुछ खूबियाँ और खामियां होती हैं। मानवीय स्वभाव खूबियाँ भूलने और खामियां याद रखने का है और भारत में तो कुछ ज्यादा ही। जैसे 2016 में नोटबंदी के दौरान देश के रोजमर्रा के जीवन में मची अफरातफरी के बीच हमारी सामाजिक स्थिरता उजागर हुई थी। लोग बैंक शाखाओं पर कतार में लगे-लगे मर गए लेकिन कहीं दंगा नहीं हुआ। लोग उसके सामजिक स्थिरता के पक्ष को भूल गये। इसके ठीक विपरीत गत माह पूर्वोत्तर दिल्ली में भड़की हिंसा ने हमारी उस सामाजिक खामी को उजागर किया जो कभी भी और कहीं भी देखने को मिलती है। दिल्ली पुलिस शुरुआत में नियंत्रण पाने में नाकाम रही और उसने यह दिखाया कि कानून का प्रवर्तन करने वाली मशीनरी किस हद तक सांप्रदायिक है।
अब कोविड-19 ने नए सिरे से हमारी ताकत और कमियां उजागर की हैं। सरकार ने लॉकडाउन की घोषणा की और प्रधानमंत्री ने शीर्ष नेतृत्व संभाला।श्री मोदी ने स्पष्ट शब्दों में नागरिकों को बताया कि लॉकडाउन का पालन नहीं करने के क्या दुष्परिणाम हो सकते हैं, परंतु संकट से ग्रस्त लोगों की मदद तथा आर्थिक मोर्चे पर उसके दुष्परिणामों से निपटने की राह राज्यों ने दिखाई है, केरल उनमे अव्वल है। इस सब से यह आश्वस्ति मिलती है कि भारत विभिन्न स्तरों पर मजबूत है। तमाम प्रमाणों बातों के बीच प्रवासी कामगारों के लौटने का माहौल तैयार किया गया। सैकड़ों किलोमीटर दूर पैदल अपने घरों की ओर लौटने वालों की कतार दिल्ली में लग गई, क्योंकि सभी रेल,बस और अन्य यात्री सेवाएं ठप हो चुकी थी। मीडिया की खबरों के बाद सरकारों ने उनके लिए भोजन व्यवस्था की और परिवहन का इंतजाम किया जा रहा है, एक दो मुकदमे भी दर्ज किये गये हैं। अब लगता है कि लोग अपने घरों को जा सकेंगे या जहां हैं वहां रुक सकेंगे ताकि हालात सामान्य होने तक उन्हें आसपास कुछ काम-धंधा मिल सके।
“जाम” जनधन खाते, आधार और मोबाइल की तिकड़ी जिसकी पहचान '’जाम” से आलोचक करते हैं। अब काम आएगी। आलोचक कहते थे कि आधार लोगों तक लाभ हस्तांतरित करने के तरीके के बजाय सरकार की निगरानी का उपाय अधिक है, पर अब उसने अपनी उपयोगिता साबित की है। जिन उपायों की घोषणा हुई है, उनमें से कई को पूरा करने में यह उपयोगी साबित होगा। बिना इन तीनों उपायों के नकद हस्तांतरण कर पाना अत्यधिक कठिन होता। वैसे यह व्यवस्था बेहतरीन नहीं है। लेकिन इस माहौल और अपरिपक्वता के बावजूद यह कुछ न होने से कुछ तो है।
कमजोरियां ही कम नहीं हैं, जैसे स्वास्थ्य सेवा क्षेत्र में भारी कमी। तमाम व्यवस्थाओं के बावजूद भारत में चिकित्सा व्यय काफी हद तक कम है और अस्पताल निजी हाथों में हैं। अधिकांश सरकारों के पास पर्याप्त तैयारी ही नहीं है। इसलिए क्योंकि देश में ऐसा सक्रिय सरकारी स्वास्थ्य ढांचा अब तक नहीं बन सका है जो 1.3 अरब भारतीयों की जरूरत के लिए आधा भी माना जा सके। यदि देश में कोविड-19 के मरीज मौजूदा दर से बढ़ते रहे तो व्यवस्था पूरी तरह चरमराक्र ढह सकती है। इतना ही नहीं परीक्षण और जांच, जरूरी बचाव उपकरण बनाने, वेंटिलेटर की आपूर्ति आदि में निजी क्षमताओं का इस्तेमाल करने में भी जो देरी हुई है अक्षम्य है।
यह तो तय है मौजूदा दौर को समाप्त होने में कई सप्ताह और महीने लग जाएंगे। इसका असर भी दीर्घकालिक हो सकता है। शेष विश्व की तरह भारत की वृद्धि दर भी तेजी से नीचे भी आएगी। तब हमें आलोचना छोड़ पुनर्निर्माण में लगना होगा | इस लॉक डाउन में सोचें , पर रचनात्मक।
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।