नई दिल्ली। कोरोनावायरस और यस बैंक के नकदी संकट की वजह से भारतीय बाजार भारी दबाव में है। डॉलर के मुकाबले रुपया कमजोर होकर लुढ़क रहा है |सेंसेक्स और निफ्टी गिर रहे हैं। भारतीय बाज़ार चिंताजनक स्थिति में आ रहा है। वैसे यह समय-समय पर होता रहा है, हर बार इसके पीछे अलग वजह होती है। इस बार तात्कालिक वजह है कोरोनावायरस। इसका अर्थ यह हुआ कि दुनिया के एक हिस्से में उपजा संकट आसानी से हजारों मील दूर फैल गया है। असली चिंता बाजार के ध्वस्त होने की या भारत पर कोरोनावायरस के प्रभाव की नहीं है। बड़ी चिंता है हमारी अर्थव्यवस्था के आगे चलकर और कमजोर होने की। अब यह स्पष्ट होता जा रहा है। सरकार ने कहा कि तीसरी तिमाही में देश की जीडीपी वृद्धि दर गिरकर 27 तिमाहियों के निचले स्तर पर आ गई और यह 4.7 प्रतिशत रही है। जबकि दूसरी तिमाही में इसका संशोधित अनुमान 5.1 प्रतिशत था।
निर्माण क्षेत्र पहले ही संकट में है और लगातार दो तिमाहियों में इसमें गिरावट आई है। आंकड़ों की नई शृंखला आने के बाद पहली बार उपयोगिता क्षेत्र में गिरावट दर्ज की गई है। विनिर्माण क्षेत्र में कोई वृद्धि देखने को नहीं मिली। लगातार दूसरी तिमाही में निर्यात गिरा है। पूंजी निवेश भी दूसरी तिमाही में गिरा। यह तीसरी तिमाही में सालाना आधार पर 5.2 प्रतिशत रही जो बेहद कम है। वायरस के खतरे और वैश्विक बाजार में गिरावट के बीच ताजा आर्थिक आंकड़े डरावनी तस्वीर पेश कर रहे हैं। कोरोनावायरस ने बाहरी झटकों के प्रति भारतीय बाजार की कमजोर प्रतिरक्षा को उजागर कर दिया है। इस कमजोर प्रतिरक्षा के लिए बीते छह वर्ष के दौरान उच्चतम स्तर पर कमजोर नीति निर्माण उत्तरदायी है। प्रधानमंत्री कार्यालय से नीचे, नेताओं और बाबुओं तक ने अतीत में तो गलतियां की ही थी, हाल में भी कई बड़ी गलतियां दोहराई गई हैं। इन बातों ने अर्थव्यवस्था को कमजोर किया है।
दुर्भाग्य है मोदी सरकार व्यापक तौर पर अनुत्पादक सार्वजनिक क्षेत्र के लिए कोई हल नहीं तलाश कर पाई है। न तो कोई सार्थक विनिवेश हुआ है और न ही कोई अहम सामरिक विनिवेश सामने आया। विनिवेश के नाम पर केवल एक सरकारी कंपनी के शेयर दूसरी कंपनी को बेचने जैसी घटनाएं घटी हैं। इस बीच लाभांश के रूप में सरकारी कंपनियों से अरबों रुपये निकाले गए। कई कंपनियों के पास तो अब वेतन देने तक के पैसे नहीं हैं। सरकारी बैंकों की हालत भी जस की तस है। बस कुछ बैंकों का आपस में विलय किया गया है। उनका स्वामित्व, भ्रष्टाचार और प्रबंधन की जवाबदेही की कमी जस की तस है। इन बैंकों को चालू रखने के लिए करदाताओं की अरबों रुपये की राशि इनमें निवेश की गई।
बजट की उदारता थमने का नाम ही नहीं ले रही। पिछली कांग्रेस सरकार के तर्ज पर ही इस सरकार ने मुद्रा ऋण मेले की शुरुआत की। नतीजा यह कि राजकोषीय घाटे में इजाफे को अब आंकड़ों की बाजीगरी से छिपाया जा रहा है। न केवल कर आतंक का सिलसिला जारी रहा बल्कि अब इसे कानून में स्थान दे दिया गया है। उच्च कर दर, समस्या ग्रस्त तंत्र और वस्तु एवं सेवा कर कानून के पुरातन प्रावधानों के चलते भी सरकार का राजस्व नहीं बढ़ा। इनके चलते कारोबारियों की दिक्कतों में अवश्य इजाफा हुआ। कहीं भी करदाताओं से इतना बुरा व्यवहार नहीं होता जितना भारत में।कुल मिलाकर देखें तो वादा न्यूनतम सरकार, अधिकतम शासन का था लेकिन हुआ इसका उलटा है।कोरोनावायरस का हमला नहीं हुआ होता तो भी कमजोर अर्थव्यवस्था का खमियाजा तो भुगतना ही पड़ता।
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।