My opinion by Pravesh Singh Bhadoriya
आखिरकार महाराज ने भाजपा ज्वाइन कर ही ली और शुरुआत में उनका स्वागत भी ऐसा ही हुआ है जैसे नये नवेले दूल्हे का होता है। बारातियों के स्वागत के लिए पूरी "भाजपा घराती" फूल-माला लिए खड़े हैं। "शादी" भी जल्दी ही हो जायेगी क्योंकि दूल्हे राजा को "दिल्ली" का नेग मिल चुका है। लेकिन शादी के बाद क्या?
असल में पूरी राह इतनी आसान नहीं है जितनी दिखाने की कोशिश हो रही है क्योंकि भाजपा को सिंधिया समर्थक लगभग 25-26 विधायकों और हजारों समर्थकों को जिसमें मंत्री,अध्यक्ष भी थे उन्हें "एडजस्ट" करना है।
वैसे "एडजस्ट" शब्द भाजपा के लिए नया नहीं है। याद होगा 2014 के चुनाव में भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथ सिंह जी ने जसवंत सिंह जी को टिकट ना देने पर कहा था कि "उन्हें कहीं एडजस्ट कर लिया जायेगा" और जबाव में जसवंत जी ने आक्रामक अंदाज में कहा था कि "वो कोई फर्नीचर नहीं हैं जिसे एडजस्ट किया जाये"।
अभी के भाजपा के "खुशनुमा" वातावरण की असली परीक्षा सबसे पहले नगर निगम चुनाव में होगी जिसमें सिंधिया के दबाव वाले क्षेत्रों में पहले उनके पिताजी और फिर उनके लिए "कार्पेट" बिछाने वालों को भाजपा समर्थित टिकट दिलाना और जिताना वहीं भाजपाई सत्ता में 15 साल से "मलाई" खाने वाले और इस उम्मीद में रुपये पानी की तरह बहाने वाले कि कभी तो भाजपा से टिकट मिलेगा को टिकट के लिए मना करना आसान नहीं होगा।
अगले विधानसभा चुनाव में भी पवैया, रुस्तम सिंह, सूबेदार सिंह, सतीश सिकरवार, राकेश शुक्ला जैसे अनेक बड़े नामों से ऊपर सिंधिया समर्थकों को टिकट देना भी आसान नहीं होगा या ये कहिए कि नामुमकिन होगा। अत: विधानसभा चुनाव में फिर ऐसा ही घटनाक्रम देखने को मिल सकता है वैसे भी "बेमेल विवाह" की उम्र ज्यादा नहीं होती है।
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