नई दिल्ली। वैसे तो बहुत सी बातें पुरानी हैं, सन्दर्भ नया है। कोरोना नहीं आता तो पश्चिम की धुंध में खोता हमारा अनुशासन हमे याद ही नहीं आता। देश फिर पश्चिम से पूरब की तरफ करवट बदल रहा है। हम फिर से अनुशासन का महत्व समझने लगे हैं और अनुशासन के भूले पाठ फिर याद आने लगे हैं। अब घरों में गृहणियों को दादी माँ का वो सबक याद आने लगा है की सुबह सबसे पहले घर “बुहारा” जाता है। भारत में गाँव से शहर बनी बसाहटों में तो सुबह का ये सबसे जरूरी और पहला काम लॉक डाउन के पहले “बाईयों” के जिम्मे था वे अपने समय से आती थी और कुछ घरों में दोपहरी में सुबह की यह अनिवार्य प्रक्रिया सम्पन्न होती थी। रात में भोजन के बर्तन अब रात में ही साफ़ होने लगे हैं, लॉक डाउन के पहले इन बर्तनों को सुबह के नाश्ते के बर्तनों के साथ बाई की मर्जी पर जुगलबंदी करना होती थी। कई घरों में बाई के आने पर जागने और सुबह की चाय बिस्तर में पीने का रिवाज बन गया था अब बदल गया है। अब सुबह की चाय परिवार के हाथों से बनी परिवार के साथ होने लगी है। अब खुद को खुदी और अपनों का अहसास भी होने लगा है।
कहने को ये सब तो निजी जिन्दगी से जुड़ी हैं, पर इस दुष्काल ने उन सामजिक सरोकारों को भी जीवित किया है जिसमें मानव सेवा और सह अस्तित्व के वे संस्कार शामिल हैं, जिन्हें हम भूलते जा रहे थे। गरीबों, बेरोजगारों , बेघरबारों को भोजन - पानी , बांटने जैसे काम समाजसेवी और धार्मिक संस्था के साथ पुलिस वाले भी कर रहे हैं। उनके भीतर का दमनकारी अफसर शांत दिख रहा है। भीतर से संवेदनशील कला प्रस्फुटित होती दिखी है। पुलिस को अंग्रेजों से विरासत में मिली अकड़ को कोरोना ने निकाल दिया है। कुछ अपवाद छोड़ दें, तो पुलिस का सौजन्य अचरज में डाल रहा है। भ्रम होने लगा है कि यह भारतीय पुलिस है।
रेडीमेड कपड़ो के चलन ने माँ की सिलाई मशीन को स्टोर में निशानी के बतौर रख दिया था वापस निकल आई है और शर्ट के टूटे बटन फिर से टांकने में अपनी हेठी समझने वाली महिलाये “किटी पार्टी” की जगह घर में मास्क सिलकर बंटवा रही हैं। कई लोगों ने सैनिटाइजर तैयार कर निःशुल्क बांटने का नेक का काम भी किया। पश्चिम के अनेक देशों में आपदा प्रबन्धन विधिवत विद्यालयीन स्तर पर ही सिखाया जाता है, हमारे इसकी शुरुआत घर और मोहल्ले से होती थी जिसे हम भूल चुके थे, सरकार को चाहिए की इसे स्कूली पाठ्यक्रम में शामिल करे। इस दुष्काल ने देश के आपदा प्रबन्धन से जुड़े सरकारी महकमे को कसौटी पर कसा, वे खरे नहीं उतरते। सब्जी, राशन दूध कहने को स्थानीय संस्था के बैनर तले बिका पर मोल बनिये की दूकान से कई गुना ज्यादा देना पड़ा। डंडी मारते समय छोटे-मोटे दुकानदार की आँखे झुकी रहती थी, सरकारी व्यवस्था में लगे कारकूनो की आँख में मक्कारी थी।
इतिहास गवाह है हमारा देश विश्व युद्ध की विभीषिका से बचा रहा। हमारे यहाँ गृहयुद्ध या फ़ौजी बगावत जैसे हादसे भी नहीं हुए। वियतनाम , अफगानिस्तान और पश्चिम एशिया सरीखे लम्बी जंग से भी दूर रहा। तब फिर ये चमत्कार कैसे हो गया कि देश का आम आदमी कोरोना संकट का सामना करने के लिए राष्ट्रीय भावना से ओतप्रोत होकर खड़ा है।
कारण है, हमारे संस्कार जिन्होंने बचपन से हमे सीख दी है। इस सीख ने हमारे मन-मष्तिष्क में यह भावना गहराई तक भर दी है कि ‘देश हमें देता है सब कुछ, हम भी तो कुछ देना सीखें। अपवाद हर जगह होते हैं। देश में भी है, जो सिर्फ काम करना नहीं, काम बिगाड़ना जानते हैं। जिन्होंने कभी लॉक डाउन नहीं देखा वो सलाह दे रहे हैं कि क्या नहीं करना चाहिए था। ठीक उसी तरह जैसे 20-20 में फलां खिलाडी को फलां बॉल पर छक्का मारना था। ऐसे लोगों को आप शकुनी, जयचंद, या कोई अन्य संज्ञा दे कोरोना ने उन्हें भी कुछ न कुछ सीख दी है आगे पता लग जायेगा।
दो विचारक एक साथ याद आ रहे हैं, महात्मा गाँधी और जान .एफ . कैनेडी। महात्मा गाँधी ने “यंग इण्डिया में 1-06-1921 को लिखा था कि जाग्रत और स्वतंत्र भारत दर्द से कराहती हुई दुनिया को शांति और सद्भाव का संदेश देगा ” भारत जाग गया है, संदेश अनुशासन और आत्म निर्भरता का जा रहा है। जान .एफ .केनेडी का कथन याद कीजिये कि “ये मत पूछो देश आपके लिए क्या कर सकता है। बल्कि ये बताओ तुम देश के लिए क्या कर सकते हो ” दुष्काल कितना ही लम्बा हो, विश्वास रखिये, आपके-हमारे अनुशासन से हारेगा। बिलकुल हारेगा।
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।