नई दिल्ली। ग्रामीण क्षेत्र के युवाओं का कोविड-19 महामारी के चलते ग्रामीण क्षेत्र की श्रम शक्ति का शहर से पुन: वापस गांव लौटना वैसे तो अच्छा नहीं है, लेकिन इसे भविष्य की संभावना के रूप में भी देखा जाना चाहिए। सरकारों के लिए यह चुनौती है, पर सब मिलकर प्रयास करें, तो इस ‘आपदा’ को ‘अवसर’ के रूप में भी बदल सकते हैं। सरकार चाहे, तो गांव को आकर्षण का केंद्र बना सकती है।
कोविड-19 आपदा के कारण गांव लौटनेवालों की संख्या बहुत बड़ी है। इनके सामने सबसे बड़ी चुनौती रोजगार की है, वे अपने गांव में ही उपलब्ध प्राकृतिक संसाधनों के उचित प्रबंधन एवं दूरदर्शिता के साथ अपना व्यवसाय कर खुद को स्वावलंबी बन सकते हैं और अन्य युवकों को रोजगार भी उपलब्ध करा सकते हैं। इसके लिए आवश्यक है कि इनका आंकड़ा तैयार हो और यह भी देखा जाये कि ये किन क्षेत्रों में कार्यरत थे। तदनुसार राज्य में कार्य विशेष क्षेत्र की पहचान कर इन्हें प्राथमिकता के तौर पर रोजगार मुहैया कराया जाये। इस प्रक्रिया से उनके प्रतिभा एवं कौशल का उपयोग हो सकेगा एवं राज्य श्रम शक्ति को कुशलता से रोजगार दे सकेगा।
यह भी सत्य है कि जो श्रम शक्ति गैर कृषि कार्य में अपना भविष्य तलाश रही हैं, उनमें से अधिकतर के पास जमीन है, पर सभी छोटे और मझोले जोत से आते हैं। मध्यप्रदेश में खेती का एक बड़ा रकबा वर्षा पर आधारित है और वह निश्चित आय का जरिया नहीं बन पा रहा है। कोविड-19 के कारण जो विकट समस्या आयी है, उससे निपटने के लिए अल्पावधि एवं दीर्घावधि योजना कृषि एवं गैर कृषि क्षेत्र में लाने की जरूरत है, जिससे श्रम शक्ति को खेती-बाड़ी से जोड़ा जा सके। महात्मा गांधी ने भी कहा है कि “आत्मनिर्भर बनने के लिए ग्रामीण अर्थव्यवस्था को विकसित करना होगा, तभी हम ग्रामीण श्रमशक्ति को रोजगार देने में सक्षम हो पायेंगे।”
कोविड-19 के आलोक में कृषि आधारित आयामों को प्रमुखता से और तत्काल लेने की आवश्यकता है। कुछ सुझाव प्रस्तुत हैं| जैसे मनरेगा योजना के अंतर्गत खेती एवं उस पर आधारित गतिविधियों में लगे किसानों को रोजगार समझा जाये, उन्हें दैनिक मजदूरी देकर आय सुनिश्चित की जाये। खरीफ फसल के सुनिश्चित आच्छादन हेतु क्षेत्रवार बीज, उर्वरक एवं खर-पतवारनाशक दवा की उपलब्धता सीधे उनके घर तक हो। फसल क्षेत्र विशेष की पहचान कर कैश क्रॉप, जैसे- मूंगफली, सोयाबीन एवं मसालों की खेती को बढ़ावा दिया जाये। मौसम के बदलते मिजाज को देखते हुए कम पानी एवं अवधिवाली फसलों, की खेती को बढ़ावा मिले। वर्षा जल संचयन हेतु छोटे और बड़े तालाबों का भी निर्माण हो। इसके अलावा सूक्ष्म सिंचाई पद्धति को अंगीकार कराने हेतु जिले के कृषि विज्ञान केंद्रों द्वारा पहले प्रशिक्षित कराकर ही योजना के अंतर्गत किसानों को सुविधाएं मिलें। ड्रिप सिंचाई पद्धति को आवश्यक बनाया जाये एवं इस क्षेत्र में कौशल विकसित किया जाये. कृषि के साथ पशुधन को भी बढ़ावा दिया जाना चाहिए। किसानों को प्रोत्साहन राशि और मशीनें उपलब्ध करायी जायें। व्यावसयिक सब्जी की खेती को प्रोत्साहन मिले। त्रिपुरा मॉडल पर उत्पाद का नुकसान होने से बचाव के उपायों को विकसित किया जाये, मसलन- जीरो एनर्जी कोल्ड चैंबर में भंडारण की व्यवस्था हो।
पंचायत स्तर पर पशुधन को बचाने की व्यवस्था हो, बकरी, सूअर एवं मत्स्य पालन के साथ-साथ डेयरी को बढ़ावा मिले, जिससे स्वरोजगार के अवसर बढ़ सकें।
लघु एवं कुटीर उद्योगों के प्रति जागरूकता एवं आकर्षण बढ़ाया जाये. उपलब्ध संसाधन एवं अनुकूल जलवायु को देखते हुए लाह, सिल्क, मधुमक्खी पालन के साथ बांस की खेती को बढ़ावा दिया जाना चाहिए| यह सब केवल सरकार के प्रयासों से ही संभव नहीं होगा, इसके लिए ग्रामीण स्तर तक जिन संगठनों की पहुंच है और जिन्हें इस क्षेत्र में काम करने का अनुभव है, उन्हें जोड़ा जा सकता है| मध्यप्रदेश सरकार चाहे तो इस अवसर का लाभ ले सकती है | आपदा को उत्सव में बदला जा सकता है |
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।