नई दिल्ली। विश्व स्वास्थ्य सन्गठन की नामकरण [नेमिंग प्रोटोकॉल] को लेकर एक प्रक्रिया है पर उसका पालन कभी होता है और कभी अंतर्राष्ट्रीय राजनीति इसे अपने हिसाब से रखती है जिसमें बीमारी,उसका निदान और उपचार एक तरफा हो जाता है और सारे लोग एक नई बहस में उलझ जाते हैं। वैसे रोगों को स्थान के नाम से जोड़ना एक पुरानी परम्परा है कोरोना को इसी कारण चीनी वायरस नाम मिला।
अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रम्प सहित अनेक लोगों ने इसे “चीनी वायरस” कहा और अभी भी कह रहे हैं। इसके विपरीत चीन मानता है कि यह सब उसे चिढ़ाने के लिए कहा जा रहा है, जवाब में वह यह साबित करने में जुटा है कि यह वायरस दरअसल, अमेरिका में पैदा हुआ और वहीं से चीन आया था। पांच साल पहले विश्व स्वास्थ्य संगठन ने एक प्रस्ताव पास करके यह कहा था कि संक्रमण फैलाने वाले नए रोगों और रोगाणुओं का नामकरण कैसे किया जाए। इसे नेमिंग प्रोटोकॉल भी माना जाता है। यह प्रस्ताव कहता है कि किसी रोग या रोगाणु का नाम किसी जगह या व्यक्ति से जोड़कर नहीं रखा जा सकता।
ऐसा होता आया है जब कई रोगों के नाम को जगहों से जोड़ दिया जाता है। यह एक पुरानी परंपरा है। इबोला वायरस को कांगो की एक नदी का नाम दिया गया, माना जाता है कि इसकी उत्पत्ति यहीं हुई थी। इसी तरह, जीका वायरस को युगांडा के एक जंगल से अपना नाम मिला। अगर यह हो सकता है, तो चीन वायरस या वुहान वायरस क्यों गलत है? सारे प्रोटोकॉल के बावजूद कुछ समय पहले कुछ वैज्ञानिकों ने एक ऐसे जीवाणु का पता लगाया था, जिस पर कोई एंटीबायोटिक असर नहीं करता। जब इसे ‘न्यू डेल्ही बग’ कहा गया, तो भारत ने इसका खासा विरोध किया था और अंत में इसी नेमिंग प्रोटोकॉल के चलते उसका नाम बदलकर ‘सुपर बग’ रखा गया।
वैसे यह पहला मौका नहीं है, जब किसी महामारी को लेकर दुनिया में इस तरह की राजनीति चल रही हो। 102 साल पहले पूरी दुनिया में लाखों या शायद करोड़ों लोगों की जान लेने वाला ‘स्पैनिश फ्लू’ स्पेन से नहीं शुरू हुआ था। एक सदी पहले की वह महामारी कहां से शुरू हुई, इसे लेकर विशेषज्ञ अभी तक कोई स्पष्ट राय नहीं बना सके हैं। फ्रांस की सेना ने इसे एक कोड नाम दे दिया- डिजीज इलेवन, यानी रोग नंबर ग्यारह। इसी दौरान स्पेन एक ऐसा देश था, जिसकी सेना ने आधिकारिक रूप से यह स्वीकार किया कि एक रोग है, जो तेजी से फैल रहा है। इसी स्वीकार के चलते शत्रु देशों ने इसे ‘स्पैनिश फ्लू’ कहना शुरू कर दिया। रोग से तेज़ उसका नाम फैला।
विश्व युद्ध की समाप्ति पर सैनिक अपने-अपने घर लौट रहे थे और साथ ले जा रहे थे एक अनजान बीमारी। सबसे आसान रास्ता था कि इसकी जिम्मेदारी अपने दुश्मन देश पर मढ़ दी जाए। स्पेन का कहना था कि यह बीमारी पुर्तगाल से उसके यहां आई है, जबकि पुर्तगाल कह रहा था कि यह स्पेन से आई है। पर्सिया का कहना था कि इसे ब्रिटेन ने उसके यहां भेजा है। सेनेगल ने इसे ‘ब्राजीलियन फ्लू’ कहा, जबकि ब्राजील इसको ‘जर्मन फ्लू’ कह रहा था। तब रूस में क्रांति शुरू हो चुकी थी और बोल्शेविक सेनाएं पोलैंड में घुसपैठ कर रही थीं, इसलिए जब यह रोग पोलैंड में फैला, तो इसे ‘बोल्शेविक फ्लू’ कहा गया।
लेकिन, हमेशा ऐसा नहीं हुआ। 29 मई,1998 को तत्कालीन बंबई (अब मुंबई) के तट पर एक जहाज ने लंगर डाला। 10 जून को खबर आई कि तट पर तैनात सात पुलिस वालों की एक नई बीमारी से मौत हो गई है। जहाज में आए सैनिक के साथ यह बीमारी पूरे देश में फैल चुकी थी। चूंकि पहली खबर बंबई से आई थी, इसलिए भारतीय डॉक्टरों ने इसे ‘बॉम्बे फ्लू’ कहना शुरू कर दिया। यह रोग भारत में महामारी बना, तो आम लोगों ने इसे प्लेग ही माना और यही कहा। जापान में इसका प्रवेश कुछ अलग तरीके से हुआ था। कुछ सूमो पहलवान कुश्ती टूर्नामेंट खेलने के लिए विदेश गए हुए थे। जब वे लौटे, तो बीमार थे। इन्हीं के जरिए यह रोग जापान में फैला, इसलिए वहां इसे ‘सूमो फ्लू’ कहा गया।
वैश्विक ताकत और गुटीय संतुलन की भी इसमें बड़ी भूमिका हमेशा रही है जैसे पहला विश्व युद्ध एलाइड पॉवर्स ने जीता था। इस गुट के अग्रणी देश ब्रिटेन और रूस थे। वे अपनी ताकत का लोहा मनवा चुके थे, इसलिए उन्होंने जो नाम दिए चल निकले और सबने उसे स्वीकार भी कर लिया। ब्रिटेन और रूस ने तो उस समय अपनी बात मनवा ली थी, लेकिन इस बार अमेरिका अपनी बात नहीं मनवा सका, जिसे दुनिया की सबसे बड़ी ताकत माना जाता है? कहीं यह अमेरिका की छीजती ताकत का संकेत तो नहीं? बात सिर्फ नामकरण की नहीं है। उसके आगे भी है।
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।