भरे भंडारे और भूखा भारत / EDITORIAL by Rakesh Dubey

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नई दिल्ली। आज देश की सबसे बड़ी समस्या भूख, पोषण और भ्रष्टाचार है। रबी की फसलों की खरीदी हो रही है। इसके उपार्जन अनुमान से सरकार संतुष्ट है। एक मार्च 2020 के आधिकारिक आंकड़े के अनुसार, भारतीय खाद्य निगम के गोदामों में 7.77 करोड़ टन खाद्यान्न जमा था। इसमें 2.75 करोड़ टन गेहूं और 5.02 करोड़ टन चावल शामिल है। सरकार के पास यह अन्न भंडारण  अब तक के सबसे ऊंचे स्तरों में से एक है, यह सरकार द्वारा तय किये मानकों से भी बहुत ज्यादा है। 

कोविड-19 महामारी के कारण खाद्य सुरक्षा की समस्या और भी भीषण बन गयी है। लाखों प्रवासी मजदूरों कई शहरों से अपने घरों की ओर वापस लौट चुके हैं या लौट रहे हैं। ये शहरी गरीबों के साथ समाज के उस कमजोर वर्ग के लोग हैं, जो अपनी आजीविका छिन जाने के साथ अचानक ही खाद्य असुरक्षा के शिकार हो गये हैं। यही आस लिए तेलंगाना के पेरूर गांव से 12 साल की मासूम पैदल अपने छत्तीसगढ़ के बीजापुर जिले के गांव आदेड़ के लिए चली। रास्ते में तबीयत बिगड़ गई, फिर भी तीन दिन में करीब 100 किमी का सफर पूरा किया। लेकिन अपने गांव से महज 14 किमी पहले बच्ची ने दम तोड़ दिया। उसके साथ गांव के 11 दूसरे लोग भी थे, लेकिन जंगल के रास्ते उसे किसी तरह का इलाज नहीं मिल सका।

मौजूदा ऐसे दृश्य को क्या कहें–एक तरफ  भारत में बढ़ती भूख और अनाज का संकट दिख रहा है और दूसरी ओर  सरकार के पास मौजूद अन्न का यह विशाल भंडार। देश की एक अनोखी विडंबना है, जो इसके पहले भी कई बार सामने आ चुकी है। एक तरफ जन सामान्य को अनाज नहीं मिला, अनाज बन्दरगाहों पर सड़ा और बाद में से शराब बनाने वालो को मुफ्त के भाव देना पड़ा।

कहने को सरकार द्वारा खाद्यान्नों की खरीद और जन वितरण प्रणाली (पीडीएस) की व्यवस्था के तीन उद्देश्य हैं-१. खाद्य सुरक्षा, खाद्य मूल्य स्थिरता तथा न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) के आधार पर किसानों के लिए पर्याप्त आय सुनिश्चित करना। एक ही साधन से इन तीनों साध्यों को साधना, अपने आम में एक बड़ी खामी है। कोई युक्ति फौरन सोचना चाहिए। इसके अलावा, देश की विशाल नौकरशाही की अकुशलता, केंद्र तथा राज्यों की एजेंसियों के बीच समन्वय का अभाव, अनाज की चोरी और बर्बादी और भंडारण क्षमता के नाकाफी होने को खाद्य पदार्थों के आयात-निर्यात को लेकर बगैर सोचे-समझे किये गये फैसले जैसे अन्य कारकों से जोड़ दिया जाये, तो साफ़ नजर आता है  कि यह व्यवस्था भारत में भूख और पोषण की समस्याओं को हल करने में विफल रही है। इसे फौरन बदलना होगा।

 पिछले वर्ष वैश्विक भूख सूचकांक पर 117 देशों के बीच नौ पायदान फिसल कर भारत की स्थिति 102 थी, तब सरकार ने इस रैंकिंग का विरोध करते हुए यह कहा था कि इसकी गणना प्रणाली में खामी है और इसने पुराने आंकड़े इस्तेमाल किये हैं। स्वयं सरकार के ही अनुसार इस रैंकिंग में भारत को 91वें पायदान पर होना चाहिए था, पर इसे भी  गर्व करने लायक नहीं कहा जा सकता है| सरकार के पास इस विषय पर अभी कोई ठोस योजना नहीं है।

कोविड-१९  महामारी के बीच खाद्य सुरक्षा की समस्या और भी भीषण हो गयी है। लाखों प्रवासी मजदूरों और कई शहरों से अपने घरों की ओर वापस लौट चुके हैं। शहरी गरीबों समेत ये सब उस कमजोर वर्ग के लोग हैं, जो अपनी आजीविका छिन जाने के साथ अचानक ही खाद्य असुरक्षा के शिकार हो गये। देश के सर्वोच्च न्यायालय में एक जनहित याचिका दायर कर यह अनुरोध किया गया कि वह सरकार को तुरंत इन कामगारों और उनके परिवारों की तकलीफें दूर करने का निर्देश दे। अपने जवाब में सरकार ने निजी कंपनियों, गैर-सरकारी संगठनों तथा राज्य सरकारों के संयुक्त प्रयासों का हवाला देते हुए यह कहा कि ‘कुल मिलाकर 85 लाख से भी अधिक लोगों को खाद्य अथवा राशन मुहैया किया जा रहा है।’

यह  सारे आंकड़े फरेब देने वाले और राहत देने में  नाकाफी है, क्योंकि खाद्य असुरक्षा झेल रहे लोगों की तादाद चार करोड़ से भी ज्यादा हो सकती है। कहने को सरकार ने अधिकाधिक राहत देने की कोशिश की है, पर उसे और ज्यादा करने की जरूरत है। सरकार को इन कोशिशों में स्वयंसेवी समूहों को बड़ी संख्या में शामिल करना चाहिए था, ताकि वे सामुदायिक रसोई घरों का संचालन कर शहरी और ग्रामीण इलाकों में पके भोजन या सूखे राशन का वितरण कर सकें।
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
संपर्क  9425022703        
rakeshdubeyrsa@gmail.com
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