नई दिल्ली। यह पूरी दुनिया के लिए अच्छी खबर हो सकती है कि यूरोपीय देश जर्मनी ने दो फार्मा कंपनियों को वैक्सीन का मानव ट्रायल करने को मंजूरी दे दी है| ब्लूमबर्ग की में छपी एक रिपोर्ट के मुताबिक, जिन दो कंपनियों का यह मंजूरी दी गई उसमें फायज़र [Pfizer] और बायो एन टेक एसई [Bio N Tech SE] हैं| वैसे तो दुनियाभर के वैज्ञानिक नये वायरस को रोकने के लिए वैक्सीन बनाने की कोशिश कर रहे हैं, जबकि कुछ अभी भी यह जानना चाह रहे हैं कि क्या मौजूदा दवाओं से कोविड-19 पर काबू पाया जा सकता है? सारी दुनिया के लिए चुनौती बने इस वायरस के बारे में यह भी तथ्य सामने आया है कि यह कोई प्राकृतिक आपदा नहीं है|सच भी है, प्रकृति “आपदा” से पहले उसी के आसपास “निदान” बनाती है।
भारत में प्लाज्मा थेरैपी की काफी चर्चा हो रही है, जिसमें कोरोना से स्वस्थ होने वाले व्यक्ति के रक्त का प्रयोग बीमार व्यक्ति को ठीक करने के लिए किया जाता है। यह माना जाता है कि कोरोना से ठीक होने वाले व्यक्ति के रक्त में वायरस के खिलाफ प्रतिरोधी तत्व उत्पन्न हो जाते हैं, जो बीमार व्यक्ति को रोग से लड़ने में मदद कर सकते हैं। बहुत ही गंभीर मरीजों को ठीक करने के लिए इस थेरैपी का प्रयोग हुआ है। दिल्ली, तेलंगाना, कर्नाटक, पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र भी इस दिशा में आगे बढ़ रहे हैं। भारतीय डॉक्टरों को भी क्लीनिकल ट्रायल शुरू करने की अनुमति मिल गई है। इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च (आईसीएमआर) ने इसकी सुरक्षा का आकलन करने के लिए इस पर क्लीनिकल ट्रायल शुरू करने की घोषणा की है।
कोविड-19 से निपटने के लिए मौजूदा दवाओं में रिसर्चरों ने बीसीजी वैक्सीन को खास तौर से चुना है। सवाल यह कि क्या यह सौ साल पुरानी दवा हमारे नए दुश्मन कोरोना से हमारा बचाव कर सकती है। प्रारंभिक विश्लेषणों से पता चला है कि जिन देशों ने इस वैक्सीन को अपनाया है, वहां कोरोना के मरीजों की मृत्यु दर उन देशों से बहुत कम है, जिन्होंने इस वैक्सीन का प्रयोग नहीं किया है। भारत और जापान सहित देशों में शिशु के जन्म के बाद अनिवार्य रूप से बीसीजी का टीका लगाया जाता है जबकि फ्रांस, स्पेन और स्विट्ज़रलैंड ने यह टीका लगाने की अनिवार्यता खत्म कर दी थी। अमेरिका, इटली और हॉलैंड जैसे देशों ने कभी भी इस टीके को अनिवार्य नहीं किया।
वैज्ञानिकों को काफी समय से यह बात मालूम है कि यह टीका न सिर्फ टीबी से बचाव करता है बल्कि दूसरे वायरसों और सांस के इंफेक्शन से लड़ने में भी मदद करता है। यह एक तरह से इम्युनिटी बढ़ाने वाला टीका है।
मलेरिया की दो दवाएं, क्लोरोक्विन और हाइड्रोक्सी क्लोरोक्विन काफी चर्चित हो चुकी हैं। अमेरिका के राष्ट्रपति ट्रंप ने इन दवाओं को गेम-चेंजर बताते हुए कोरोना संक्रमित लोगों के इलाज के लिए इनके प्रयोग की जोरदार वकालत कर डाली। हालांकि, इन दवाओं के कारगर होने का कोई समुचित प्रमाण नहीं मिला। विभिन्न देशों में हैल्थ वर्कर्स को बचाव के लिए यह दवा दी जा रही है। भारत ने अमेरिका सहित अनेक देशों को हाइड्रोक्सी क्लोरोक्विन की सप्लाई भेजी है। ब्राजील में इस दवा को लेकर चल रहा क्लीनिकल ट्रायल बीच में ही रोकना पड़ा क्योंकि अनेक मरीजों में दिल की धड़कन की गंभीर समस्या उत्पन्न हो गई। फ्रांस में भी इसी तरह का मामला सामने आने के बाद ट्रायल रोकना पड़ा।
कुछ जगह रेमडेसीविर नामक दवा का भी प्रयोग हुआनतीजे ठीक नहीं रहे ।वर्ल्ड हेल्थ ऑर्गेनाइजेशन (WHO) के डॉक्यूमेंट से इसकी जानकारी मिली है। रिपोर्ट में बताया गया था कि कुल 237 मरीजों में से कुछ को रेमडेसिवयर ड्रग दी गयी और कुछ को प्लेसीबो। एक महीने बाद रेमडेसिवयर लेने वाले 13.9 प्रतिशत मरीजों की मौत हो गयी जबकि इसकी तुलना में प्लेसीबो लेने वाले 12.8 प्रतिशत मरीजों की मौत हुई। ऐसी हालात में साइड इफेक्ट के कारण ट्रायल को पहले ही रोक दिया गया। नतीजों को देखते हुए इस पर क्लीनिकल ट्रायल शुरू किए जा सकते हैं लेकिन लैब में किए गए प्रयोगों के आधार पर यह नहीं कहा जा सकता कि यह दवा मनुष्यों पर कितना असर करेगी। भारत में भी इस दवा के उपयोग पर चर्चा हो रही है। आईसीएमआर के मुख्य वैज्ञानिक रमन गंगाखेडकर ने कहा कि हम इसके प्रयोग से पहले विश्व स्वास्थ्य संगठन के ट्रायल नतीजों का इंतजार करेंगे। सारी दुनिया के लिए चुनौती बने इस वायरस के बारे में यह भी तथ्य सामने आया है कि यह कोई प्राकृतिक आपदा नहीं है। सच भी है, प्रकृति “आपदा” से पहले उसी के आसपास “निदान” बनाती है।
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।