नई दिल्ली। वुहान के घटते- बढ़ते मौत के आंकड़ों से दुनिया भर में यह माना जा रहा है कि चीन की कम्युनिस्ट पार्टी ने सूचनाएं छिपाईं और मौत के बारे में सच नहीं बताया। चीन की कम्युनिस्ट पार्टी ने शुरुआती दिनों में जिस तरह से इस दुष्काल को छिपाने का काम किया, उसी का नतीजा आज विश्व भोग रहा है अब यह महामारी भारी संख्या में लोगों की जान ले रही है।इसकी जद में विश्व स्वास्थ्य सन्गठन भी आ गया। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने विश्व स्वास्थ्य संगठन को दी जाने वाली आर्थिक मदद रोक दी है। ट्रंप का आरोप है कि संगठन ने न सिर्फ घातक गलतियां कीं, बल्कि चीन पर बेजा भरोसा किया। इस महामारी को लेकर चीन का आंख मूंदकर समर्थन करने के कारण डब्ल्यूएचओ की वैश्विक साख को भी धब्बा लगा है।
पक्की खबर है अमेरिका कोरोना वायरस से स्रोत की भी जांच कर रहा है और इस बात के प्रमाण जुटा रहा है कि यह वायरस बाजार की बजाय वुहान की एक प्रयोगशाला से निकला है। अमेरिकी राज्य मिजूरी ने तो अप्रत्याशित कदम उठाते हुए चीन पर मुकदमा ही कर दिया है और आरोप लगाया है कि बीजिंग ने कोरोना वायरस को लेकर दुनिया को गलत जानकारी दी, जिससे बड़े पैमाने पर मौत और भारी आर्थिक नुकसान हुआ।
इस तनातनी को कोविड-19 से पहले से जारी इन दोनों बड़ी ताकतों में सर्वोच्चता की जंग की अगली कड़ी मान सकते हैं, लेकिन अब यूरोप की तरफ से सख्त प्रतिक्रिया का आना एक दिलचस्प विकास है। यूरोप के वरिष्ठ राजनेता अब चीन के व्यवहार और उसकी नीतियों पर सवाल उठा रहे हैं। फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुअल मैक्रॉन ने स्पष्ट किया कि लोकतंत्र जैसे खुले समाज और सत्य को दबाने वाले समाज में कोई तुलना नहीं हो सकती। ब्रिटेन के विदेश मंत्री डॉमिनिक रॉब भी चीन के खिलाफ काफी मुखर हैं और कह रहे हैं कि दुनिया को बीजिंग से इस मुश्किल सवाल का जवाब मांगना चाहिए कि कैसे कोरोना वायरस आया और इसे शुरू में ही क्यों नहीं रोका जा सका?
यूरोपीय संघ इटली और स्पेन जैसे राष्ट्रों में हालात संभाल न सका। इसका फायदा उठा चीन यूरोप की एकता में सेंध भी लगा रहा है। दरअसल, इटली के प्रधानमंत्री गुइसेपे कॉन्टे की चिकित्सा उपकरण संबंधी मांग को पूरा करने में यूरोपीय सरकारें नाकाम रहीं। जर्मनी, फ्रांस और चेक गणराज्य जैसे कुछ देशों ने तो जरूरतमंद पड़ोसियों को आपातकालीन उपकरण व चीजें मुहैया कराने से बिल्कुल इनकार कर दिया। जबकि चीन न सिर्फ इस महासंकट का इस्तेमाल अपने भू-राजनीतिक प्रभाव को बढ़ाने में कर रहा है, बल्कि उसने यह तक घोषणा कर दी है कि वह स्वास्थ्य सेवा के ‘सिल्क रोड’ पर फिर से काम शुरू करने जा रहा है। चिकित्सा आपूर्ति करते हुए चीन यूरोप से लेकर अफ्रीका तक अपनी पहुंच बनाने में जुट गया है।
पिछले दो दशकों में चीन की कंपनियों ने यूरोपीय प्रौद्योगिकी कंपनियों में खासा निवेश और उनका अधिग्रहण किया है। ऐसे में, यह खतरा है कि कोविड-१९ महामारी और इसके कारण पैदा होने वाला आर्थिक संकट यूरोप में चीनी दखल की नई संभावनाएं खोल सकता है। हालांकि यूरोप इस खतरे से अनजान नहीं है। यूरोपीय संघ के कॉम्पिटिशन कमिशनर ने हाल ही में कहा है कि इससे बचने के लिए यूरोपीय देशों को अपनी कंपनियों में शेयर बढ़ाना चाहिए।
चीन अपनी सैन्य आक्रामकता बढ़ाने का भी काम कर रहा है, और यह किसी से छिपा नहीं है। वह दक्षिण चीन सागर में सैनिकों की आवाजाही तेज कर रहा है, ताईवान, जापान और दक्षिण कोरिया को धमकी दे रहा है और संदिग्ध परमाणु गतिविधियां भी शुरू कर रहा है। जाहिर है, व्यापार और स्वास्थ्य को हथियार बनाने की उसकी कोशिशों का वैश्विक नेतृत्व के रूप में उसकी स्वीकार्यता पर गहरा असर पडे़गा।
ऐसे में, दुनिया भर के राष्ट्र स्वाभाविक तौर पर अपनी वैश्विक आपूर्ति शृंखला पर गहरी नजर रखे हुए हैं और चीन की अर्थव्यवस्था पर अपनी निर्भरता कम करने की कोशिश में हैं। उनके लिए जरूरी है कि वे अपनी तरह की सोच रखने वाले देशों के साथ मिलकर काम करें। वे न सिर्फ एक नई वैश्विक आपूर्ति शृंखला बनाने की ओर बढ़ें, बल्कि चीन की वर्चस्ववादी सोच से बचने की जुगत भी करें।
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।