नई दिल्ली। कितनी विचित्र बात है देश में अन्न पैदा करने वाला भी दुखी है और उपभोग करने वाले तबके का एक बड़ा हिस्सा अन्न का अभाव झेल रहा है,बाज़ार मौके का लाभ उठा रहा है। पैदा करने वाला आज इस दौर में अपना माल खेत से बाज़ार तक नहीं पहुंचा पा रहा है। दीन-हीन असंगठित कामगार अन्न के लिए परेशान है।असंगठित कामगारों में 94 प्रतिशत रोज कमाते और खाते हैं। उनके पास इतनी बचत नहीं होती कि वे दो-तीन महीनों का राशन इकट्ठा कर सकें। जाहिर है, जो जहां है, उसकी बुनियादी जरूरतें वहीं पूरी की जानी चाहिए थी। ऐसा सम्भव नहीं हुआ, जरूरतें पूरी न होने पर महानगरों से कामगारों का हुजूम गांवों की ओर निकल पड़ा। अभी ठिकाने तक नहीं पहुंचा है।
कितनी बड़ी विडम्बना है कि हमारे पास अनाज के पर्याप्त भंडार हैं और बुनियादी तौर पर अनिवार्य वस्तुओं का उत्पादन भी हो रहा है। इसलिए अगर प्रशासन चाहे, तो आवश्यक वस्तुओं की आपूर्ति जरूरतमंदों तक हो सकती है, परन्तु इसके लिए एक व्यापक जन-वितरण प्रणाली की जरूरत है। सरकारी अमला और समाज के कुछ सन्गठन जो इस काम में लगे है , कम पड़ते हैं।
सरकार को चाहिए वो कोई नया तंत्र विकसित करे और इसमें अगर किसानों के हित भी जोड़ लिए जाएं, तो स्थिति कहीं बेहतर हो जाएगी। जैसे, लॉकडाउन के कारण खेतों से फसल मंडियों तक नहीं पहुंच रही है, क्योंकि माल ढुलाई बंद है। नतीजतन, किसान सब्जी-फल जैसे उत्पाद खेतों में ही नष्ट करने को मजबूर है। प्रशासन इन फसलों को खेतों से खरीदकर नजदीकी शहरों में जन-वितरण का काम कर सकता है। इससे गांवों में पैसा आएगा और मांग व उत्पादन, दोनों में गति आ सकेगी।
आज देश में सभी तरह के उत्पादन रुके हुए हैं। कृषि, बिजली, गैस आदि के क्षेत्र में थोड़ा-बहुत उत्पादन जरूर हो रहा है, मगर यह इतना नहीं कि देश की आर्थिक जरूरतें पूरी हो सकें। देखा जाए, तो हमारे अर्थ तंत्र का छोटा सा हिस्सा काम कर रहा है बड़ा हिस्सा लॉक डाउन में है। अनुमान है की इस कोरोना दुष्काल के बाद हमने अर्थतंत्र को तेजी से घुमाया, तो भी परिणाम लगभग वैसे ही होने जो वर्ष के आरम्भ में थे। आंकड़ों में समझे तो पिछले वर्ष हमारा उत्पादन 200 लाख करोड़ रुपये का था, जो इस साल घटकर 120 लाख करोड़ रुपये तक ही हो सकता है। परिणाम, हमारा कर संग्रह तेजी से गिरेगा, अभी सिर्फ अनिवार्य वस्तुओं का उत्पादन ही होगा और कर-राजस्व गैर-अनिवार्य वस्तुओं से ही जुटता है। जीएसटी-संग्रह भी 80 से 90 प्रतिशत तक कम हो सकता है। कॉरपोरेट टैक्स-संग्रह,और आयकर में भी गिरावट आएगी।
इस मोर्चे पर लड़ने के लिए सरकारों को अनिवार्य सेवाओं की बहाली पर पूरा ध्यान देना होगा। यह काम तभी होगा, जब वे अपने खर्च घटाएंगी। उनको अपने नियमित खर्च में जबर्दस्त कटौती करनी होगी। निवेश एक साल के लिए रोकना होगा। परिणाम स्वरूप नए रोजगार के अवसर पैदा नहीं होंगे। हम जिस काल से गुजर रहे हैं यह आपात स्थिति से बदतर है| आपात स्थिति तो युद्ध काल हिता है जिसमें मांग बढ़ जाती है। अब मांग सिर्फ अन्न के समुचित वितरण की आ रही है और आएगी अन्यउत्पादन, आपूर्ति तो जैसे खत्म ही हो गई है।
इसलिए सरकारों को चाहिए जो थोडे-बहुत संसाधन बचे हैं, उसे जनता तक जरूरी खुराक पहुंचाने के काम में लगाएं। जिंदा रहने के लिए जरूरी सामान जुटाएं। यही कोरोना की सरकारों को सीख है। किसान, श्रम शक्ति, बाज़ार के छोटे खिलाडी इस दुष्काल में बड़ी भूमिका का निर्वाह कर सकते हैं सरकार इन्हें वोट बैंक की जगह राष्ट्र का मुख्य निर्माण घटक मानकर अपनी अगली योजना का केंद्र बिंदु इसी वर्ग को बनाये। वैसे भी वैश्विक परिदृश्य पर एक बड़ी ताकत अमेरिका इस दुष्काल की विभीषिका से कराह रहा है और चीन कठघरे में है। हमे विश्व को एक नया माडल देना होगा, जो एक विश्व को एक बड़े देश का बड़ा तोहफा होगा। आप खेत में हो, कारखाने में हो, राजनीति में हो या सरकार में भारत का गौरव आपके हाथ में है। ऐसा न हो देश कहे वक्त पड़ा तो मुल्क के बेटे,मुल्क के ही काम न आये।
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।