नई दिल्ली। कोई माने या न माने इस लॉकडाउन का देश की आर्थिक स्थिति पर गहरा और लम्बा प्रभाव होगा। जिन लोगों ने बैंक से ऋण ले रखा है उनके द्वारा ली गई रकम पर ब्याज चढ़ता जायेगा जबकि उस रकम से चलने वाला व्यापार ठप रहेगा। साफ बात है आय शून्य और खर्च बढ़ेगा। कई उद्योगों, विशेषकर छोटे उद्योगों की दशा गंभीर हो जाएगी। रोजगार कम होने से लॉकडाउन के बाद भी बाजार में मांग नहीं बढ़ेगी। यदि बैंकों ने इस अवधि के ब्याज को माफ़ कर दिया तो संकट बैंक पर आएगा।
बैंक के अपने संकट है, बैंक ने जमाकर्ताओं से रकम ले रखी है और उस पर बैंक को ब्याज तत्काल देना होगा जबकि उनके द्वारा उधार दी गयी रकम से इस अवधि में उनको आय नहीं होगी। अगर बैंकों को इस संकट से बचाने के लिए सरकार ने पूंजी निवेश किया तो यह संकट बैंकों से खिसककर सरकार पर आएगा। सरकार बाजार से ऋण लेकर बैंकों में निवेश करेगी परन्तु इस निवेश से सरकार की आय में वृद्धि नहीं होगी।बाज़ार से ऋण लेकर बैंक के घाटे की भरपाई करने से आय नहीं होगी। सरकार द्वारा आज लिया गया ऋण भविष्य पर बोझ बनेगा।
मौद्रिक नीति की भी सीमा है। सरल मौद्रिक नीति के अंतर्गत रिजर्व बैंक ब्याज दरों को कम कर देता है। रिजर्व बैंक को छूट होती है कि अपने विवेक के अनुसार वह ब्याज दरों को कम करे। इन कम ब्याज दरों पर कमर्शियल बैंक मनचाही रकम को रिज़र्व बैंक से ऋण के रूप में ले सकते हैं। इसके बाद बैंक द्वारा उस रकम को सरकार को अथवा दूसरे उद्योगों को ऋण के रूप में दिया जाता है। लेकिन रिज़र्व बैंक यदि ब्याज दरों को शून्य भी कर दे तो भी जरूरी नहीं कि कमर्शियल बैंक रकम को लेकर उद्योगों को देने में सफल होंगे।
उदहारण के लिए जापान में बीते कई वर्षों से केन्द्रीय बैंक ने ब्याज दर शून्य कर रखी है। अमेरिका ने भी कोरोना संकट आने के बाद ब्याज दर को शून्य कर दिया है। लेकिन वहां शून्य ब्याज दर पर भी उद्यमी अथवा व्यापारी ऋण लेकर निवेश करने को तैयार नहीं है और उपभोक्ता ऋण लेकर बाइक या फ्रिज खरीदने को तैयार नहीं है ,क्योंकि इन्हें आने वाले समय में होने वाली आय पर भरोसा नहीं है। यही दशा भारत में भी होगी |
अगला विकल्प नोट छापना | नोट छापने की भी सीमा है। यदि नोट छापने मात्र से आर्थिक विकास हो सकता होता तो जवाहरलाल नेहरू के समय ही रिज़र्व बैंक ने भारी मात्रा में नोट छापकर आर्थिक विकास हासिल कर लिया होता। जब भी अधिक मात्रा में नोट छापे जाते हैं तो बाजार में मूल्य बढ़ने लगते हैं। बड़ी मुद्रा का प्रचलन महंगाई में वृद्धि करता है | यही कारण है कि द्वितीय विश्व युद्ध के अंत के समय जर्मनी में एक डबल रोटी को खरीदने के लिए लोगों को लाखों मार्क ले जाने पड़ते थे। तात्पर्य यह कि मौद्रिक नीति से अर्थव्यवस्था को बढ़ाना थोड़े समय के लिए संभव होता है जब तक महंगाई न बढ़े। जब नोट छापने से महंगाई बढ़ने लगती है तो यह नीति पूरी तरह फेल हो जाती है।
कोरोना संकट का सामना करने के लिए हमें अर्थव्यवस्था को छोटे-छोटे हिस्सों में बांट देना चाहिए। हर राज्य को उसके संसाधन और मानव शक्ति के मध्य तालमेल बैठाने के लिए स्वतन्त्रता पूर्वक योजना बनाने और राज्य में उपलब्ध मानव शक्ति को कार्य देने की स्वतंत्रता देनी चाहिए।
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।