भारतीय संविधान एक ऐसे समाज की कल्पना करता है, जिसमे सामाजिक, आर्थिक एवं विधिक न्याय सभी व्यक्तियों को समानता के आधार पर उपलब्ध हो सके। हम कह सकते है कि गरीब, पिछड़े वर्ग एवं समाज के कमजोर वर्गों में इस प्रकार की शंका एवं भय उत्पन्न हो गया है, कि वे न्याय प्राप्त कर ही नही सकते है।इसलिए समस्त विधिक सेवा कार्यक्रमों एवं योजनाओं को उपयुक्त प्रभाव को दूर करने हेतु कार्य करना चाहिए तथा समाज के अलाभप्रद वर्गों के दिमाग में यह विश्वास पैदा करना चाहिए कि हमारा न्याय प्रशासन समस्त व्यक्तियो को समान न्याय उपलब्ध करवाने के लिए कटिबद्ध हैं। विधि किसी अमीर एवं गरीब, उच्च एवं निम्न, शक्तिशाली एवं कमजोर वर्ग को भी भेदभाव नहीं करती हैं तथा विधि कुछ ही लोगों के लिए सुरक्षित विशेषाधिकार नही है।
भारत में आधुनिक रूप से लोक अदालत का आगमन:-
1. गरीब को विधिक सहायता प्रदान करने हेतु गठित समिति के प्रतिवेदन के विचारों के आधार पर।
2.न्यायिक समूह द्वारा न्यायालय में विभिन्न स्तरों पर बहुत समय से लंबित मामलों के ढेर के एकत्रीकरण के कारण।
लोक-अदालत की संरचना :-
सबसे पहले इसमे न्यायाधीश, अधिवक्ता को विधिक सहायता सेवा से जोड़ा गया एवं प्रभावित व्यक्तियों को विधिक सलाह दी गई। इसके बाद स्थानीय प्रशासन भी विधिक सहायता शिविरों से जुड़ गए तथा उन्होने जनता के क्षेत्र सम्बन्धी पुलिस, राजस्व, स्थानीय स्वशासन विभागों की समस्याओं के समाधान हेतु प्रशासनिक उपचार प्रदान किए।
लोक अदालत योजना के पीछे मूल विचार यह था कि न्यायालय में विशाल संख्या में लंबित वादों के निस्तारण में शीघ्रता लाई जाए एवं मुकदमे का व्यय कम किया जाए एवं लोक अदालत से यह अपेक्षा की गई कि वह वार्तालाप, समझौता एवं साधारण के माध्यम से विवादों का निस्तारण करेगी। लोक-अदालतों की की कार्यवाही में साधारण अधिकारी, सेवानिवृत्त न्यायिक अधिकारी, सरकारी अधिवक्ता, विधि प्राध्यापक वर्ग, विधि छात्र, महिला अधिवक्ता तथा महिला सामाजिक कार्यकर्ता आदि अपनी अहं भूमिका का निर्वहन करते है एवं ऐसी योजनाओं में अपना सहयोग प्रदान करते है।
लोक-अदालत की शक्तियां
1. केन्द्र सरकार द्वारा राष्ट्रीय विधिक सेवा प्राधिकरण अधिनियम,1987 को संशोधित कर 9 नवम्बर 1995 के माध्यम से परे भारत में प्रभावशाली बना दिया।【अब अनुच्छेद 370 हटने से जम्मू-कश्मीर पर भी लागू होगा】ताकि ग्रामीण इलाकों में प्रजातंत्र को प्रभावी रूप से लागू किया जा सके। महत्वपूर्ण बात यह है कि इस अधिनियम द्वारा लोक अदालत की पूर्व में अपनाई जाने वाली कार्यशैली में कोई विशेष परिवर्तन नहीं किया गया, लेकिन इस अधिनियम के तहत लोक अदालत को कानूनी अधिकार दिया गया है। लोक-अदालत के निर्णय को अंतिम बनाया गया । इनके विनिश्चय के विरुद्ध कोई भी अपील नहीं की जा सकती हैं एवं लोक-अदालत द्वारा दिया गया निर्णय सिविल डिक्री माना जायेगा।
2. भारतीय दण्ड संहिता,1860 की धारा195,219,228 के अधीन न्यायिक प्रकृति मानी जाएगी तथा दण्ड प्रक्रिया संहिता,1973 के अध्याय 26 की धारा 195 के अंतर्गत प्रत्येक लोक अदालत सिविल न्यायालय मानी जाएगी। लोक-अदालत के प्राधिकारिताओ एवं समितियों के सदस्य, स्टाफ को भारतीय दण्ड संहिता की धारा 21 के तहत लोक सेवक माना जायेगा।
लोक अदालत का क्षेत्राधिकार(संक्षिप्त रूप में)
राष्ट्रीय विधिक सेवा अधिकरण की धारा 5 के तहत लोक अदालत पक्षकारों के बीच विवाद के निर्धारण, समझौता एवं निपटारा करने हेतु अपना क्षेत्राधिकार किसी न्यायालय में लंबित मामलों से सम्बंधित हैं एवं जो मामले उस न्यायालय के क्षेत्राधिकार में तो आता हैं लेकिन वाद न्यायालय में नहीं लाया गया है तब भी उस मामले को आयोजित की गई लोक अदालत के समक्ष सुनवाई हेतु प्रस्तुत किया जा सकता हैं। परन्तु लोक अदालत को किसी मामले अथवा वाद में क्षेत्राधिकार नहीं होगा जिसमें कोई अपराध किसी विधि के तहत अशमनीय(Non Compoundable) प्रकृति का हैं।
उच्चतम न्यायालय एवं उच्च न्यायालय में लंबित हेतु लोक अदालत
अधिनियम की धारा 7(2) उच्च न्यायालय के मामलों के लिए राज्य की प्राधिकारिताये, लोक अदालतों के आयोजन के बारे मे प्रावधान है। धारा 3(क) के अधीन कार्यरत उच्चतम न्यायालय विधिक सेवा समिति भी उच्चतम न्यायालय के मामलों के लिए लोक अदालत आयोजित कर सकती हैं।
लोक अदालत में निम्न मामले ला सकते है या सुनवाई होती हैं
सभी प्रकार के फौजीदारी एवं दीवानी अपराध के साथ समझौता संबंधित, झगड़ा संबंधित, वैवाहिक मामले, मनरेगा से सम्बंधित, कर से संबंधित, मुआवजा से संबंधित, बिजली से संबंधित, पेशन, श्रम विवाद आदि सभी मामले पर लोक अदालत में सुनवाई होती हैं।
लोक-अदालत निम्न स्तर पर आयोजित होती हैं
1. तहसीलस्तर पर - क्षेत्रीय तहसील विधिक सेवा प्राधिकरण द्वारा।
2. जिला स्तर पर - जिला सेवा विधिक सेवा प्राधिकरण द्वारा।
3. राज्य स्तर पर(उच्च न्यायालय) - राज्य सेवा प्राधिकरण द्वारा।
4. राष्ट्रीय स्तर पर - राष्ट्रीय सेवा प्राधिकरण द्वारा।
5. सर्वोच्च न्यायालय स्तर पर - सर्वोच्च न्यायालय सेवा प्राधिकरण द्वारा।
उपर्युक्त स्तर पर समय-समय पर लोक अदालत का आयोजन किया जाता है।
लोक अदालत का वर्तमान स्वरूप
विधिक सेवा प्राधिकरण अधिनियम के प्रभाव में आ जाने से लोक अदालत कार्यक्रम अब कानूनी प्रक्रिया का आवश्यक अंग हो गया हैं।यदि आप वास्तव मे मुकदमे बाजी यानी बर्बादी से बचना या फस गए हो तो, निकलना चाहते है तो राज्य भर में उच्च न्यायालय, जिला न्यायालय परिसर, तहसील स्तर पर स्थित तहसील न्यायालय परिसर में लगाई जा रही लोक अदालत में उपस्थित होकर विचारधीन प्रकरणों का निबटारा लोक अदालत के माध्यम से करा सकते हैं।
इस लेख के माध्यम से हम उन गरीब, पिछेड़े, कमजोर वर्ग के सभी लोगों को यह बताना चाहते है कि आप लोक अदालत में एक बार जाकर अपनी समस्या बताए एवं अपने पैसे और समय को बचाए।
बी.आर. अहिरवार होशंगाबाद (पत्रकार एवं लॉ छात्र) 9827737665