दुष्काल : पैकेज के बाद भी कुछ छूटा है, सरकार ! / EDITORIAL by Rakesh Dubey

कोविड-19 ने सबसे अधिक चिंताजनक और चुनौतीपूर्ण भारत के रोजगार परिदृश्य को बना दिया है। जिसके कारण सरकार को एक बड़ा राहत पैकेज जारी करना पड़ा। इस पैकेज की व्याख्या देश की वित्त मंत्री श्रीमती निर्मला सीतारामन ने आज से शुरू की है। वस्तुत: इस निर्णय के पीछे भारत के भावी रोजगार परिदृश्य पर पर आई विभिन्न रिपोर्टें है| अलग-अलग आईं इन रिपोर्टों में दो बातें साफ़ होती थी । 1. भारत में उभरने वाली रोजगार चुनौतियों और रोजगार निराशाओं के बीच लोगों की आजीविका बचाने के लिए बड़ा राहत पैकेज जरूरी है, सरकार का यह कदम इसी का नतीजा है। 2. अर्थव्यवस्था से जुड़ा श्रम सुधार हैं, जरूरत इस बात की है श्रम सुधारों को लागू करते समय श्रमिकों के हितों की अनदेखी न हो। इन्ही को मद्देनजर रखकर शायद 11 मई को विभिन्न राज्यों के मुख्यमंत्रियों की बैठक में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी राज्यों से उद्योग और श्रम कानूनों के सरलीकरण का आग्रह किया और कहा कि ऐसा किए जाने से चीन से निकलती हुई कंपनियों के देश में आने की अपार संभावनाएं बढ़ेंगी।

अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) की ताजा रिपोर्ट में कहा गया है कि कोरोना प्रकोप और लॉकडाउन से भारत के असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों के रोजगार पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है। देश में बेरोजगारी की चुनौती कितनी तेजी से बढ़ रही है इसका अनुमान प्राइवेट थिंक टैंक सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनमी द्वारा प्रकाशित रिपोर्ट से लगाया जा सकता है। इसके मुताबिक भारत में जनवरी, 2020 में बेरोजगारी की दर 7.2 प्रतिशत थी। यह फरवरी में 7.8 और मार्च में 8.7 प्रतिशत हो गई। यह अप्रैल, 2020 में बढ़कर 23.5 प्रतिशत के स्तर पर पहुंच गई। इतना ही नहीं, लॉकडाउन से कारोबार बंद होने से अप्रैल, 2020 में देश में बेरोजगारों की संख्या 12.20 करोड़ से ज्यादा हो गई। इनमें से 9.13 करोड़ लोगों का रोजगार तो अकेले अप्रैल 2020 माह में समाप्त हुआ।

आज देश के करीब 45 करोड़ की श्रम शक्ति में से 90 प्रतिशत श्रमिकों और कर्मचारियों के सामने रोजगार मुश्किलें बढ़ गई हैं, प्रवासी श्रमिकों को फिर से बसाने की चुनौती है। इन सब के पास सामाजिक सुरक्षा जैसा कोई कवच नहीं है।

देश के छोटे उद्योग और कारोबार पहले से ही मुश्किलों के दौर से आगे बढ़ रहे थे अब कोरोना और लॉकडाउन के कारण ठप हो गए हैं। ऐसे में छोटे कारोबारियों के सामने उनके कर्मचारियों को वेतन और मजदूरी देने का संकट खड़ा हो गया है। उद्यमी और कारोबारी यह कहते हुए दिखाई दे रहे हैं कि उनके पास वेतन-मजदूरी देने के लिए रुपये नहीं हैं। ऐसे में उनके लिए नौकरियां और रोजगार बचाए रखना बेहद मुश्किल है।देश की नयी पीढ़ी के लिए कैम्पस प्लेसमेंट के माध्यम से रोजगार देने वाले कई नियोक्ताओं जिनमें कई बहुराष्ट्रीय कम्पनी हैं ने आगे आने वाली रोजगार पेशकश को या तो वापस लेने अथवा उन्हें आगे बढ़ाने की बात चलाई है। अमेरिकी शोध और सलाहकार फर्म गार्टनर सहित खाड़ी देशों की कुछ कंपनियां अपनी रोजगार नीति पर नए सिरे से विचार कर रही हैं, जिससे में देश के विभिन्न प्रोफेशनल एजुकेशन संस्थानों में प्लेसमेंट की प्रक्रिया भी उलझ गई है।ऐसे सारी चिंताओं के बीच सरकार को यह रणनीति बनाने की मजबूरी थी।

कहने को 4 मई से देश की करीब 82 प्रतिशत अर्थव्यवस्था खोल दी गई है, फिर भी देश के अधिकांश उद्योग कारोबार बिलकुल ठप हैं। ऐसे में कई कंपनियां घाटे में होंगी और काफी लोग बेरोजगार तो होंगे ही। ऐसे में सरकार की प्राथमिकता रोजगार और श्रमिकों का संरक्षण करना होनी ही चाहिए थी। इसलिए जहां सरकार द्वारा उद्योग कारोबार को बचाने के लिए विशेष राहत दी गई है। ब्रिटेन और ऑस्ट्रेलिया में सरकार ने इस दौरान रोजगार खोने वाले अधिकांश कर्मचारियों को वेतन राहत देना सुनिश्चित किया है| भारत को भी ऐसा ही कुछ करना चाहिए, जो जरूरी है। वैसे कई राज्य बड़े पैमाने पर श्रम सुधारों को आगे बढ़ाते हुए दिख रहे हैं। पहले उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और गुजरात की सरकारों ने ऐसी पहल की, उसके बाद असम, महाराष्ट्र, ओडिशा और गोवा ने भी श्रम-सुधार की दिशा में महत्वपूर्ण फैसले किए हैं।जरूरत उनके फौरन अमल में आने की है।
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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