भारत का संविधान देश को कल्याणकारी राज्य बताता है। देश में भूख के विरुद्ध गारंटी देने वाला भी कानून है, फिर भी देश में भूखे नागरिक सडक पर हैं। सरकार के पैकेज भावी योजना बताते हैं, पर शाम को रोटी मिलेंगी या नहीं इसका अनुमान सरकार, अर्थशास्त्री, राजनीतिग्य और धर्मशास्त्री किसी के पास नहीं है। सडक पर चल रहे प्रवासी मजदूर, बेसहारा बुजुर्ग, रोटी की आस समाज से लगाये हए हैं और उनकी यह आस भारत के संस्कार निराशा में नहीं बदलने दे रहे हैं। भारत का यह भाव अब तक जिन्दा है, इस भाव का संविधान के किसी अनुच्छेद से सम्बन्ध नहीं है।राजनीतिक दल इस पवित्र भाव पर डोरे डाल रहे हैं,लाभान्वितों को अपना अगला वोट बैंक बनाने की कुत्सित जुगाड़ें शुरू हो गई है।
सच में आज सवाल 150 साल पुरानी पार्टी, विश्व में सबसे ज्यादा सदस्य होने का दम भरने वाली पार्टी और इनसे जुड़े छात्र मजदूर संघ मुखर क्यों नहीं है? एक बड़ा सवाल है। वे तमाम महिलाएं जो लॉक डाउन के पहले कुछ काम करती थीं अपनी प्रतिष्ठा के कारण हाथ भी नहीं फैला पा रही है।बड़े शहरों में फंसे उनके प्रवासी पति या बेटे मुश्किल हालात में हैं, इसलिए घर आने वाला पैसा भी बंद हो गया। ठीक इसी समय, इन महिलाओं की अपनी आमदनी भी रुक गई है। जो महिलाएं सब्जियां उगाती हैं, उनके पास इन्हें बाजार तक ले जाने का कोई जरिया नहीं बचा। निर्माण-कार्य बंद होने से मजदूरों की मांग भी अब नहीं है। हालांकि सरकार ने महात्मा गांधी राष्ट्रीय रोजगार गारंटी अधिनियम के तहत काम देने की घोषणा की है, लेकिन यह भी शायद ही कहीं शुरू हो सका है।
डरावने लगने लगे हैं उन महिलाओं और बच्चों के चेहरे शहरी भारत की झुग्गी-बस्तियों और मोहल्लों में भी मौजूद हैं। इनमें सबसे ज्यादा प्रभावित संभवत: वे महिलाएं हैं, जो अपने परिवार की एकमात्र कमाने वाली सदस्य हैं। ये महिलाएं या तो विधवा हैं या फिर इनके पति या पिता बीमारी या किसी अन्य वजह से कमाने योग्य नहीं। ये घरेलू नौकरानी के रूप में काम करती हैं, फेरी लगाकर सामान बेचती हैं, निर्माण-कार्यों में मजदूरी करती हैं, कूडे़-कचरे उठाती हैं, या घर में रहकर ही छोटे-मोटे काम करती हैं, ताकि परिवार का गुजर-बसर हो सके। जब दिन सामान्य थे, तब भी जीने के लिए इनका संघर्ष अथक था, मगर अब तो काम-धंधा बंद हो जाने के बाद भूख ने उनके घरों पर मानो कब्जा कर लिया है।
सरकारी व्यवस्था की कहानी भी है। सरकारों ने इस तरह की व्यवस्था की है कि राशन कार्ड वाले परिवारों को अनाज मिल सके। जिनके पास राशन कार्ड नहीं है, उनके लिए कई राज्य सरकारों ने आधार या अन्य दस्तावेजों के माध्यम से अनाज देने की व्यवस्था की है। फिर भी, कुछ प्रतिशत आबादी ऐसी है, जो सबसे कमजोर है और इस पूरी व्यवस्था से बाहर है। कभी-कभी राशन कार्ड या आधार कार्ड न होने के कारण भी ऐसा होता है, लेकिन आमतौर पर वितरण-व्यवस्था की खामी इसके लिए जिम्मेदार है।
केंद्र सरकार नकदी हस्तांतरण की घोषणा भी कर चुकी है, जिनमें महिलाओं के जन-धन खाते में 500 रुपये देने की बात है, मगर यह लाभ भी हर महिला को नहीं मिल पा रहा। वैश्विक कंसल्टिंग कंपनी डालबर्ग द्वारा किए गए एक अध्ययन के मुताबिक, अप्रैल के मध्य में गरीबी रेखा के नीचे सबसे गरीब 18000 परिवारों में से 45 प्रतिशत को मुफ्त राशन नहीं मिल पाया था, जबकि 70 प्रतिशत परिवारों के जन-धन खाते में नकद नहीं पहुंच सका था। मुश्किलों के तपते रेगिस्तान का यहीं अंत नहीं है। समस्याएं कई और भी हैं। चूंकि पैसे न आने के कारण हाथ तंग हैं और लॉकडाउन को लेकर तस्वीर पूरी तरह साफ नहीं है, इसलिए घर में अक्सर झगडे़ होते रहते हैं कि पैसे कैसे बचाए जाएं और किन-किन मदों पर खर्च रोके जाएं। इन बहसों का नुकसान भी आमतौर पर महिलाओं के हिस्से में आता है, और उन्हें मानसिक व शारीरिक हिंसा से गुजरना पड़ता है।
इसके विपरीत समाज में कई ऐसे अदृश्य हाथ भी हैं, जो इन भूखे परिवारों की मदद करते हैं। ऐसे लोग हर समुदाय में हैं और यह सुनिश्चित करने के लिए अपना पूरा जोर लगाते हैं कि इन परिवारों को किसी भी तरह से दो वक्त की रोटी मिल जाए। ऐसे सारे अदृश्य हाथों का अभिनन्दन और उनको प्रणाम।
देश और मध्यप्रदेश की बड़ी खबरें MOBILE APP DOWNLOAD करने के लिए (यहां क्लिक करें) या फिर प्ले स्टोर में सर्च करें bhopalsamachar.com
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।