भारत ही नहीं विश्व में यह सवाल पूछे जाने लगा है कि कोरोना के बाद रास्ता क्या होगा? सारे विश्व में जिस रफ्तार से पूंजीवादी व्यवस्था चल रही है, क्या ऐसे ही चलेगी ? समाजवादी व्यवस्था ऐसे ही लडखडायेगी? तीसरा सोच बन नहीं सकेगा। सबको इसी व्यवस्था पर चलना होगा? जैसे चीन बेल्ट-रोड परियोजना के नाम पर गरीब देशों के संसाधन लूट रहा है, विश्व में युद्ध जैसी स्थिति पैदा कर रहा है।
अमेरिका जैसे अनेक पश्चिमी देश पेरिस सम्मेलन का अनुपालन करने में कोताही कर रहे हैं।हथियारों का संवर्द्धन लगातार हो रहा है, कई देश आतंकवाद का सहारा ले रहे है। इस महासंकट में भी पश्चिमी दुनिया विखंडित दिखायी दे रही है। गेहूं के सबसे बड़ा उत्पादक देश रूस ने भी निर्यात करने से मना कर दिया है। भूमंडलीकरण के सबसे बड़े हितैषी फ्रांस के राष्ट्रपति ने फूड को राष्ट्रवाद से जोड़ दिया है। लूट खसोट की पश्चिम की सोच पर क्या भारत भारत का वसुधैव कुटुंबकम कुछ रंग दिखा पायेगा, वसुधैव कुटुंबकम किसी स्वार्थ और लिप्सा पर आधारित नहीं है। गांधी का ग्राम स्वराज भी यही था, जहां किसी चीज के लिए शहरों का मुहताज़ होना अस्वीकार्य था। अगर हमने गाँधी की बात मानी होती , तो पलायन की नौबत नहीं आती और आगे आयेगी या नहीं अभी कहना मुश्किल है। प्रधानमंत्री का पैकेज भारत की तस्वीर बदल सकेगा या महज एक राजनीतिक जुमला साबित होगा। इसका फैसला तो भविष्य करेगा।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लोकल से ग्लोबल की बात कही है, वर्तमान में जैसे देश चल रहा है यह एक उलटबांसी है। देश उल्टा चला है, पिछले 70 वर्षों में भारत ग्लोबल से लोकल की लकीर पर चला। भारत में बनी चीजें ग्लोबल मार्केट की प्रतिस्पर्धा में दम तोड़ती रहीं और हम कब लोकल से ग्लोबल बन गये, पता ही नहीं चला। कोकाकोला और पेप्सी गांव की दुकानों में आ गईं, नीबू पानी लस्सी छाछ गायब हो गई भागलपुर की रेशमी साड़ी, जो माचिस की डिबिया में समा जाती थी, पश्मीना का शॉल और कानपुर का जूता समय के साथ गायब गये। कुछ अंग्रेजों ने फिर पंडित नेहरू जी पश्चिम प्रेम ने लोकल पर हमेशा के लिए ताला लगा दिया। आज यह महामारी दुनिया को अपने अस्तित्व का बोध करा रही है। यह अस्तित्व बोध भारत के लिए एक सीख है।
इमैनुएल वलस्तीन की पुस्तक है ”दुनिया वैसी नहीं रहेगी जैसी दिखती है”. पुस्तक में आण्विक हथियारों का भय परमाणु परीक्षण से जुड़े सवाल हैं, परन्तु उनकी बात पूरी सही निकली, यह अलग बात है, अभी कारण कोरोना है।
आज सभी यह मान रहे हैं कि दुनिया अब पहले जैसी नहीं होगी, न ही आर्थिक और न ही सामाजिक। जब ये बदलेगी तो राजनीति और कूटनीति भी बदल जायेगी| आज प्रधानमंत्री और उनसे आगे भी सोचने वालों स्वदेशी की सोच क्या बड़े औद्योगिक घराने ऐसा होने देंगे? राजनीति और व्यापारिक घरानों की आपसी लेन-देन का क्या होगा ? भारत में रेहड़ी-फेरीवालों की संख्या लाखों में है, क्या उनको इस योजना का लाभ मिल पायेगा ?
अभी दुनिया में दो विचारधाराओं- पूंजीवाद और समाजवाद ने ऐसी स्थिति बना रखी है जिससे किसी तीसरे मॉडल को पनपने की गुंजाइश ही नहीं दिख रही है। एक में राज्य को अभूतपूर्व शक्ति मिली और दूसरे ने राज्य को एक बीमारी के रूप में देखने के लिए प्रोत्साहित किया। जिससे समाज की रचना और उसकी सार्थकता दोनों ही व्यवस्थाओं में गौण होती चली गयी। एक में राज्य को सब कुछ करने की निष्कंटक छूट, तो दूसरे में व्यक्ति को अपने हद तक करने की आजादी मिल हुई है। सामाजिक ढांचा बन ही नहीं पाया| आजादी के बाद भारत की आर्थिक और राजनीतिक सोच भी इन्हीं दो धाराओं में फंसी है और अब तक निकल नहीं सकी है। पंडित नेहरू रूस की केंद्रीकृत व्यवस्था से बहुत प्रभावित थे, उन्होंने भारत को सोवियतमुखी बनाने की कोशिश की। इसके विपरीत देश का राजनीतिक आधार के लोकतांत्रिक होने से बहुत कुछ अमेरिका की आर्थिक सोच से जुड़ गया। जब मार्गरेट थैचर और रोनाल्ड रेगन द्वारा आधुनिक लिबरल वर्ल्ड आर्डर बनाया गया, तो कई देशों के साथ भारत भी उसमें शामिल हो गया।
गांधी जी के विचारों का हनन तो आजादी के बाद ही शुरू हो गया था। जिस ग्राम स्वराज को शक्ति देकर रामराज्य की बात गांधी जी ने कही थी, लुप्त हो गया। गांव की रोजगार व्यवस्था टूट कर शहरों की दौड़ लगाने लगी तथा लाखों लोग मजदूर बनकर महानगरों में चले गये। पर्यावरण के न्यूनतम मानक को भी ध्वस्त कर दिया गया| गांधी जी ने आजादी के पहले ही कहा था कि भारत कभी भी अंग्रेजों के आर्थिक ढांचे का अनुसरण नहीं करेगा, क्योंकि उसके लिए भारत को पृथ्वी जैसे तीन ग्रहों की जरूरत पड़ेगी। आज जब महामारी ने भौतिकवादी सोच पर आघात किया है, तो सोचना स्वाभाविक है कि समाजवाद और पूंजीवाद से हटकर अपनी देशज व्यवस्था का अनुसरण करना होगा। आज तो यही एक विकल्प सूझ रहा है। आगे क्या होगा, राम जाने।
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।