लॉकडाउन के नतीजे किसी से छिपे नहीं है। रोजगार छिन गए है , रहने की सुविधा बची नहीं, मेहनत करके रोटी खाने वाले भीख मांगकर पेट भरने की स्थिति में आ गए हैं। राजनेता पहले ही दिन से एक दूसरे की आलोचना में व्यस्त हैं। सिर्फ एक उम्मीद थी घर वापिसी तो हजारों लोग निकल पड़े, सैकड़ों-हजारों किलोमीटर पैदल चलने का हौसला लेकर। सबके मुंह में एक ही बात थी कि “ शहर में रहकर भूखे मरने से बेहतर है अपने गांव में ही जाकर क्यों न मरें?” इस तरह की जुनूनी बातें हौसला करके नहीं हौसला खोकर निकलने वाले ही कर सकते हैं।प्रश्न यह है कि हौसला खोने की यह स्थिति क्यों बनी? क्या इसके लिए हौसला खोने वाले ही दोषी हैं या फिर और भी कुछ कारण हैं इसके, कारण बहुत से गिनाए जा सकते हैं। पर बेमानी होगा यह सब अब।
आजादी के लगभग 75 साल बाद भी देश अपने नागरिकों को जीने का वह अधिकार नहीं दे पाया, जिसकी गारंटी देश का संविधान देता है। जीने का मतलब और कुछ नहीं तो इतना तो होता ही है कि व्यक्ति को दो समय का खाना, तन ढकने के लिए कपड़ा और सिर पर एक छत मिले। क्या इतनी सुविधा देश के हर नागरिक के पास है? गुस्सा आता है भारत सरकार के उस केन्द्रीय मंत्री के दावे पर जिसमे केंद्रीय मंत्री कहते हैं कि पिछले 3 महीने में देश में कोई भूखा नहीं रहा है। देश की राजधानी दिल्ली में दोपहर को बारह बजे बंटने वाले खाने के लिए बेरोजगारी के मारे लोग, सबेरे छह बजे से कतार लगाते हैं और फिर भी कोई जरूरी नहीं कि खाना पाने वालों में उसका नंबर आ ही जाए। इस भूख ,लाचारी, और बदहवासी को संविधान के किस अनुच्छेद में खोजेंगे आप?
आज प्रश्न इस दुष्काल का नही, उन नीतियों के औचित्य का है, जिनके चलते 21वीं सदी के भारत में पंक्ति के अंतिम छोर पर खड़े नागरिक को भूखा रहना पड़ रहा है। इस बहस में मत उलझिए नीतियां जवाहरलाल नेहरू की थीं या नरेंद्र मोदी की है। प्रश्न इस हकीकत का है कि 75 साल की कल्याणकारी योजनाओं के दावों के बावजूद आज देश के इन बड़े शहरों में भी लोग भूखे सोने को मजबूर क्यों हैं? अप्रैल 2020 में सामाजिक न्याय मंत्रालय ने एक रपट में स्वीकार किया है कि देश के10 शहरों दिल्ली, मुंबई, कोलकाता, चेन्नई, बेंगलुरू, हैदराबाद, नागपुर, इंदौर, लखनऊ और पटना में सवा करोड़ से अधिक लोगों के भूखे रहने की नौबत है। इसके बावजूद हमारी सरकार यह दावा करती है कि हमारे यहां भूख से कोई नहीं मरता।
इस दुष्काल काल में पैदल घर जाने के लिए कितने मजबूर लोगों ने रास्ते में दम तोड़ दिया। सरकारी रिपोर्ट में किसी को डिहाइड्रेशन तो किसी को कुछ और होने के दावे करती हैं । यह जानने की जरूरत किसी ने महसूस नहीं की कि मई की भीषण गर्मी में पैदल या खुले ट्रक में यात्रा के लिए मजबूर लोगों के पेट में खाना पहुंचा भी था या नहीं?सरकार तीन समय का खाना देने के दावे कर रही हैं। स्वयंसेवी संस्थाएं और संवेदनशील नागरिक भी हरसंभव मदद कर रहे हैं। इस सब के बावजूद इस दुष्काल में पलायन के दृश्य कल्याणकारी राज्य को चुनौती दे रहे हैं।
दुष्काल के इस संकट ने जो चुनौतियां हमारे सामने खड़ी कर दी हैं, उनका सामना करने की तैयारी जरूरी है। ये चुनौतियां आर्थिक हैं, सामाजिक भी हैं और मनोवैज्ञानिक भी। इन सबका सामना हमें करना ही होगा, पर एक चुनौती यह भी है कि हम हर स्थिति का राजनीतिक लाभ उठाने के लालच से कब उबरेंगे। इस लालच के शिकार दोनों हैं सत्तारूढ़ और विपक्ष भी। हमारे राजनेता, चाहे वह किसी भी दल के हों, एक-दूसरे पर उंगली उठाने में अपना समय ज्यादा दे रहे हैं। यह सही है कि जो सत्ता में होता है उसे ज्यादा सवालों का उत्तर देना पड़ता है, पर जनसेवा की ईमानदार कोशिश की अपेक्षा हर राजनीतिक दल से नागरिक करते हैं, अफ़सोस दोनों और से ऐसा नहीं हो रहा।
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।