कोरोना से उपजी आपदा को लेकर दुनिया की दो बड़ी शक्तियों के बीच आरोप-प्रत्यारोप चल रहे हैं। विश्व स्वास्थ्य सन्गठन भी घेरे में हैं। निजात के प्रयोग जो लॉक डाउन के रूप में हुए उनसे समस्या का निदान भले ही न निकला हो, पर ये तो प्रमाणित हो गया,इस आपदा से निजात के सूत्र भारतीय जीवन पद्धति और दर्शन में छिपे हैं। यह बात सत्य के एकदम नजदीक है कि भारतीय ग्रन्थों में वर्णित भारत की जीवन पद्धति दुनिया को इस आपदा से निजात दिला सकती है, लेकिन बदले में दुनिया को स्वार्थ और आकंठ भौतिकवादी सुख को छोड़ना होगा। इस पद्धति के पहला पायदान वर्तमान भारतीय शैली में बदलाव से शुरू करना होगा। अभी भारत भी भारत की प्राचीन शैली और वर्तमान आवश्यकता के बीच तालमेल नहीं बैठा पा रहा है।
वैसे इस बात को अब सब मान रहे है कि हेतु कुछ भी हो पर यह समस्या प्राकृतिक संसाधनों के शोषण के कारण पैदा हुई है। 1995 से 2005 तक के जलवायु परिवर्तन को लेकर विश्व राजनीति की पेंच देख लें, तो यह साफ हो जाता है। अमेरिका इसे लेकर कभी भी गंभीर नहीं दिखा। जब-जब पर्यावरण को लेकर बहस छिड़ी, तो अमेरिका के साथ कई पश्चिमी देशों ने कन्नी काट ली। चीन दुनिया की दूसरी महत्वपूर्ण आर्थिक शक्ति बनकर उभरा, तो उसने भी वही रुख अपनाया। अंतरराष्ट्रीय संस्थाएं इन दो शक्तियों की हाँ में हाँ मिलाती रही। नतीजा, कोरोना की रूप में आया।
सब जानते हैं, पश्चिमी देशों की संस्कृति भारत की तरह प्रकृति से नहीं जुड़ी हुई है। भारत में तो प्रकृति को आपसी रिश्तों से जोड़कर देखा गया है, इससे सोचने का तरीका भी बदल जाता है। पश्चिमी दुनिया की संस्कृति में प्रकृति संसाधन मात्र है। भारतीय शास्त्र पेड़, पौधों, पुष्पों, पहाड़, पशु-पक्षियों, जंगली-जानवरों, नदियां, यहां तक कि पत्थर को भी पूज्य मानते हैं| कालिदास पर्यावरण संरक्षण के विचार को मेघदूत तथा अभिज्ञान शाकुंतलम में दर्शाते हैं। रामायण तथा अन्य धार्मिक ग्रंथों, उपनिषद वन, नदी, जीव-जंतु, पशु-पक्षियों की प्रशंसा से भरे हैं,ऐतरेयोपनिषद के अनुसार, ब्रह्मांड का निर्माण पांच तत्वों पृथ्वी, वायु, आकाश, जल एवं अग्नि से हुआ है। इन्हीं पांच तत्वों में असंतुलन ही सूनामी, ग्लोबल वार्मिंग, भूस्खलन, भूकंप आदि प्राकृतिक आपदाएं हैं।
जब प्रवृत्ति लूट-खसोट की हो, तो प्रकृति का शोषण स्वाभाविक है, जो पिछले कई दशकों से हो रहा है। वर्तमान संकट महज प्राकृतिक संकट नहीं है, बल्कि मानवजनित है। इस महामारी ने पूंजीवादी और समाजवादी विश्व व्यवस्था के राजनीतिक और आर्थिक तंत्र पर सवाल खड़ा कर दिया है।
वर्तमान पूंजीवादी और समाजवादी मॉडल ने किसी तीसरे को पनपने की गुंजाइश ही नहीं छोड़ी| एक ने राज्य को अभूतपूर्व शक्ति प्रदान कर दी और दूसरे ने राज्य को एक बीमारी के रूप में देखने के लिए प्रोत्साहित किया।चूंकि, भारत का राजनीतिक आधार लोकतांत्रिक था, इसलिए बहुत कुछ अमेरिका की आर्थिक सोच से जुड़ गया।जिस ग्राम स्वराज को शक्ति देकर रामराज्य की बात गांधी जी ने की थी, उसे समाप्त कर दिया गया। गांव की रोजगार व्यवस्था टूटकर शहरों की दौड़ में शामिल हो गयी। लाखों लोग मजदूर बनकर महानगरों में आ गये।पर्यावरण के न्यूनतम मानक को भी ध्वस्त कर दिया गया।
गांधी जी ने कहा था कि भारत कभी भी अंग्रेजों के आर्थिक ढांचे का अनुसरण नहीं करेगा। क्योंकि उसके लिए भारत को पृथ्वी जैसे तीन ग्रहों की जरूरत पड़ेगी| लेकिन, गांधी जी की बातें केवल उपदेश बनकर रह गयीं। आज माहमारी ने भौतिकवादी सोच पर आघात किया है, तो प्रश्न उठना स्वाभाविक है। हम कहाँ है ?
भारत को समाजवाद और पूंजीवाद से हटकर अपनी देशज व्यवस्था का अनुसरण करना होगा। भारत की राजनीतिक व्यवस्था में राज्य और व्यक्ति के बीच समाज होता है, जो दोनों के बीच एक सेतु का काम करता है।यह राज्य के प्रति आदर और सम्मान पैदा करता है और राज्य को व्यक्ति के विकास के लिए अनुशासित करता है। आज जब पूरी दुनिया भारत के पारंपरिक ज्ञान का बिगुल बजा रही है, अमेरिकी व्हॉइट हाउस में वेदों का उच्चारण हो रहा है। भारत की पर्यावरण समझ को दुनिया समझने को लालायित है। ऐसे में भारतीय ज्ञान परंपरा को विकसित करने की चुनौती भी है।
पश्चिमी दुनिया की सनक रही है कि वह अपनी जीवनशैली से पहले समस्या पैदा करता है फिर उस पर रिसर्च करने की विधि की स्थापना करता है। भारत में सब मौजूद है, बस अपने ग्रंथो को पलट कर देखें और उनकी सही व्याख्या करें। केवल भारत के लिए नहीं समूचे विश्व के लिए।
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।