इंदौर की कल्पना मेहता, जी हाँ !वही देश की आधी आबादी यानि महिला अधिकारों की पैरोकार, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की सक्रिय सदस्य, विदुषी, देश विदेश के कानून कायदे जानने वाली भारत की न्याय व्यवस्था में न्याय न पा सकी। उनके पिता की जीवन भर की कमाई को इंदौर के एक व्यवसायी ने दबा ली, और जायदाद औने-पौने भावों में बिकी। कल्पना महिलाओं की आवाज़ थी। उनके बगैर लड़ाई थमेगी नहीं, पर सवाल यह है कि देश कहाँ जा रहा है? इतनी रसूखदार महिला नेत्री जब इस स्थिति से गुजरती हुई दुनिया से गुजर जाती है तो बाकी के अधिकारों की बात कितनी खोखली है।
क्या करें, किससे गुहार लगायें ? सर्वशक्तिमान देश के न्यायालय का वही पक्ष फिर सामने है कि देश के उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों के 36 प्रतिशत पद खाली हैं। कई राज्यों के उच्च न्यायालयों में प्रतिशत से अधिक रिक्तियां हैं। स्थिति की गंभीरता का अंदाजा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि देश के उच्च न्यायालयों में करीब 43 लाख मुकदमे लंबित है, जिनमें से 8 लाख से ज्यादा मामले दस साल से भी ज्यादा पुराने हैं और इनमें से एक बड़ा प्रतिशत महिलाओं से जुड़े मुकदमों का है।जब जज नहीं, तो सुनवाई कौन करे? यह कौन सोचेगा, वही समाज जो रिश्तेदारों से प्रारम्भ होकर जिला, प्रान्त और देश में बिना किसी वर्गीकरण के फैला है |जिसका एक मात्र उद्देश्य यथास्थितिवाद को कायम रखना है।
राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग अधिनियम, 2014 में संसद के दोनों सदनों द्वारा सर्वसम्मति से पारित हुआ था और आयोग अधिनियम, तथा उच्चतम व उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति प्रक्रिया को व्यापक आधार देने का प्रावधान किया गया था। न्यायपालिका, कार्यपालिका के साथ-साथ ख्यात बुद्धिजीवियों की सहभागिता से नियुक्ति प्रक्रिया को अधिक पारदर्शी व जवाबदेह बनाने की यह कवायद थी। मगर इस अधिनियम को संविधान पीठ द्वारा अवैध करार दिया गया और इसे न्यायपालिका की स्वतंत्रता को प्रभावित करने से जोड़कर संविधान की मूल भावना के खिलाफ बताया गया। अब बहस कीजिये,कल्पना मेहता की तरह विरोध में जिला, उच्च और सर्वोच्च न्यायलय में हाथ में अंत में नाकामी आएगी।
सही न्याय व्यवस्था संविधान की मूल प्रावधानित व्यवस्था से अलग रूपांतरित दिखाई देती है। मूल व्यवस्था में नियुक्ति संबंधी अंतिम निर्णय का अधिकार राष्ट्रपति को प्राप्त था। नई व्यवस्था में अंतिम निर्णय कॉलेजियम का होता है, जो संविधान की मौलिक अवधारणा से अलग है। न्यायाधीशों की नियुक्ति करने तथा जरूरी संसाधनों की व्यवस्था करना कार्यपालिका के जिम्मे है, लेकिन यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि गाहे-बगाहे ऐसे मसलों पर सरकार और सर्वोच्च न्यायालय के बीच ठन जाती है तथा ये दोनों संस्थाएं खाली पदों में हो रही देरी के लिए एक-दूसरे को जिम्मेदार ठहराने लगते है।
जजों की नियुक्ति के लिए नाम आने के बाद सरकार औसतन 127 दिन में निर्णय लेकर सर्वोच्च न्यायालय के कॉलेजियम को भेज देती है। इस कॉलेजियम को फैसला लेने में 119 दिन लगते हैं. फिर तय नाम सरकार के पास जाता है, जो फिर 73 दिन का समय लगाती है| इसके बाद 18 दिनों के औसत समय में राष्ट्रपति व प्रधानमंत्री अपनी मंजूरी देते हैं। अभी आलम यह है कि 396 में से 199 रिक्तियों के लिए उच्च न्यायालय कॉलेजियम ने कोई नाम ही नहीं दिया है। कई बार तो ऐसा होता है कि यह कॉलेजियम पद खाली होने के पांच साल बाद नयी नियुक्ति के लिए अपनी अनुशंसा सरकार के पास भेजता है। अभी स्थिति यह है कि सर्वोच्च न्यायालय कॉलेजियम के पास 80 नामों तथा सरकार के पास 35 नामों के प्रस्ताव विचाराधीन कुछ समय पूर्व विचाराधीन थे।
अब फिर कल्पना मेहता की बात, एक उच्च शिक्षित माता- पिता की सन्तान, इंदौर के संभ्रांत परिवार से सम्बद्ध, कल्पना और उनके माता-पिता के जीवन का उत्तरार्ध न्यायालय के गलियारों में सिर्फ इसलिए बीता कि वे धनी मगर सदाचारी थे, देश में प्रपंच और मौजूदा कानून के मकडजाल पर किसी का नियन्त्रण नहीं है। वे सब इसके शिकार हुए। कानून समाज बनाता है, समाज की पहली इकाई व्यक्ति का हश्र क्या होता है? इससे बेहतर उदहारण नहीं हो सकता। बदलिए, अपनी मनोदशा, राष्ट्र की दशा और कानून को।
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।