नई दिल्ली। भारत की सबसे बड़ी समस्या क्या है ? देश के राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने इस ओर इशारा किया है देश की बढ़ती जनसंख्या और इसकी वजह से सामने आ रही दिक्कतों के बारे में उन्होंने बहुत कुछ कह दिया है। राष्ट्रपति ने कोविड-19 से उबरने के बाद देश में बढ़ती आबादी को नियंत्रित करने की ओर ध्यान देने पर जोर दिया है, जो वास्तव में आज उत्पन्न परिस्थितियों को देखते हुये बेहद जरूरी है।
बड़ा सवाल यह है कि देश में आबादी पर नियंत्रण कैसे पाया जाये? आखिर जनसंख्या पर नियंत्रण का सवाल उठते ही इसके साथ राजनीति क्यों जुड़ जाती है? इस पहलू का भी अगर अध्ययन किया जाये तो पता चलेगा कि शिक्षित वर्ग, भले ही वह किसी भी समुदाय का हो, लंबे समय से सीमित परिवार के सिद्धांत का पालन करता आ रहा है लेकिन दुर्भाग्य से राजनीतिक स्वार्थों की खातिर जनसंख्या नियंत्रण के मुद्दे को भी सांप्रदायिक रंग देने से लोग बाज नहीं आते हैं।
याद कीजिये, देश में बढ़ती जनसंख्या और सीमित संसाधनों की समस्या को लेकर करीब पांच दशकों से चिंता व्यक्त की जा रही है, लेकिन हर बार इस मुद्दे को राजनीति के चश्मे से देखने और सांप्रदायिकता का जामा पहनाने के कुछ निहित स्वार्थी लोगों का रवैया इसमें बहुत बड़ी बाधा बनता रहा है। आज देश की जनसंख्या विस्फोटक रूप में है और संसाधनों की कमी की वजह से एक बड़ा वर्ग महानगरों तथा बड़े शहरों में मलिन बस्तियों में तंगहाली की अवस्था में जिंदगी गुजारने को मजबूर है।
कोविड-19 पर काबू पाने के लिए देशव्यापी लॉकडाउन के दौरान उचित दूरी बनाये रखने के नियम को ठेंगा दिखाते हुये महानगरों से गांव की ओर लाखों कामगारों के पलायन से उत्पन्न चुनौतियों के परिप्रेक्ष्य में राष्ट्रपति ने जो यह चिंता व्यक्त की है, वो वास्तव में देश के हर समझदार आदमी की चिंता है। इस विषय को किसी धर्म या संप्रदाय से जोड़ने की बजाय इसे राष्ट्रहित और हमारे यहां उपलब्ध संसाधनों के परिप्रेक्ष्य में देखा जाना उचित होगा । जनता को बढ़ती आबादी के दुष्प्रभावों के प्रति जागरूक करने के साथ ही उसे सीमित परिवार होने से जीवन स्तर में होने वाले गुणात्मक सुधारों से रूबरू करने की आवश्यकता है।
सर्व विदित है सत्तर के दशक में ‘हम दो हमारे दो’ और ‘छोटा परिवार सुखी परिवार’ जैसे कार्यक्रम शुरू किये गये थे, लेकिन आपातकाल के दौरान जबरन नसबंदी की घटनाओं की वजह से इस अभियान को सांप्रदायिक रंग दे दिया गया और इनके अपेक्षित नतीजे नहीं निकले। सरकारों ने देश में विस्फोटक स्थिति ले रही जनसंख्या से उत्पन्न चुनौतियों से हार नहीं मानी।लेकिन वंचित परिणाम भी नहीं आये।
काफी गंभीर मंथन के बाद ही एक राय बनी थी कि आबादी नियंत्रण के बारे में जनता के बीच सकारात्मक संदेश पहुंचाने के लिए इसकी शुरुआत निर्वाचन प्रकिया से की जाये। इसका नतीजा था कि पंचायत स्तर के चुनावों में दो संतानों का फार्मूला लागू किया गया। इस समय हरियाणा, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, पंजाब, मध्य प्रदेश, आंध्र प्रदेश और ओडिशा सहित कई राज्यों में पंचायत चुनावों के लिए यह फार्मूला लागू है। इस फार्मूले पर उच्चतम न्यायालय भी अपनी मुहर लगा चुका है। फिर ज्यादा सोच विचार की बजाये इस अभियान को तीव्र गति मिलनी ही चाहिए।
देश में बढ़ती आबादी का मुद्दा सत्तारूढ़ गठबंधन की ओर से संसद में उठाया गया और इसके लिए संविधान में अनुच्छेद 47-A जोड़ने की मांग की गयी। हाल ही में, वरिष्ठ अधिवक्ता और राज्यसभा में कांग्रेस के सदस्य डॉ. अभिषेक मनु सिंघवी ने जनसंख्या नियंत्रण के लिए एक निजी विधेयक पेश करने की घोषणा करके सबको चौंका दिया। सिंघवी के इस निजी विधेयक में दो से अधिक संतान वाले दंपति को संसद, विधानमंडल और पंचायत चुनाव लड़ने या इसमें निर्वाचन के अयोग्य बनाने का प्रस्ताव है। इस विधेयक में यह भी प्रस्ताव किया गया है कि दो से ज्यादा संतान वाले दंपति सरकारी सेवा में पदोन्नति के अयोग्य होंगे और वे केन्द्र तथा राज्य सरकार की समूह-क की नौकरी के लिए आवेदन के अयोग्य होंगे।
जनसंख्या नियंत्रण के मुद्दे पर सरकार ने अभी तक संसद में अपना पक्ष नहीं रखा है। लेकिन उम्मीद की जानी चाहिए कि देश के सीमित संसाधनों और कोरोना वायरस जैसी आपदा से निपटने के दौरान पेश आयी कठिनाइयों के मद्देनजर सरकार और राजनीतिक दल राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की चिंता पर गंभीरता से विचार करेंगे।
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।