न्यायपालिका को लेकर कल लिखे “प्रतिदिन” पर बहुत सी प्रतिक्रियाएं आई। सबसे ज्यादा वकीलों की थी उनमे से अधिकांश “कॉलेजियम”के बारे में जानना चाहते थे। मैं जहाँ तक समझ सका हूँ “कॉलेजियम” एक क्लब की तरह काम करता है और इसे अधिक सुदृढ़ बनाने की आवश्यकता पर देश के न्यायविद, जोर देते रहे है, सरकार इसके दोनों तरह के उपयोग करती रही है। राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग कानून को अपने अल्पमत के फैसले में 2015 में सही ठहराने वाले न्यायमूर्ति जे. चेलामेश्वर के बाद न्यायमूर्ति दीपक गुप्ता ने बाद में “कॉलेजियम” की कार्यशैली पर कटाक्ष किया है। हाल ही में सेवा निवृत्त न्यायमूर्ति दीपक गुप्ता की बात माने तो “कभी-कभी कॉलेजियम में शामिल न्यायाधीशों के बीच एक-दूसरे को उपकृत करने के आधार पर नियुक्तियां की जाती हैं। वे यह भी कहने में गुरेज नहीं करते कि “अंतत: कोई भी व्यवस्था उतनी ही अच्छी होती है, जितना उसका संचालन करने वाला व्यक्ति होता है।“
आपको याद होगा कि संविधान पीठ ने जब अक्तूबर, 2015 में राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्त आयोग कानून को बहुमत के निर्णय से असंवैधानिक घोषित किया तो उम्मीद की जा रही थी कि शायद भाई-भतीजावाद और पारदर्शिता के अभाव को लेकर लग रहे आरोपों को दूर करने के लिए ठोस कदम उठाये जायेंगे। ऐसी उम्मीद की वजह बहुमत के निर्णय में इस संबंध में दिये गये सुझाव और न्यायमूर्ति चेलामेश्वर के अल्पमत फैसले में कॉलेजियम की कार्यशैली पर की गयी टिप्पणियां थीं।
न्यायमूर्ति दीपक गुप्ता की टिप्पणियों से यही संकेत मिलता है कि कॉलेजियम की कार्यशैली में कोई विशेष बदलाव नहीं आया है। न्यायालय के कॉलेजियम ने अक्तूबर, 2017 से अपने फैसले शीर्ष अदालत की वेबसाइट पर अपलोड करना शुरू कर दिया था। हालांकि, इस पर भी कुछ आपत्तियां उठी थीं, क्योंकि एक वर्ग का मानना था कि इन नामों को सार्वजनिक करने से पहले उन सभी नामों का सार्वजनिक किया जाना बेहतर होता, जिनके नाम उसके पास विचारार्थ आये थे। बहरहाल, बेबाक टिप्पणियों से यही संकेत मिलता है कि न्यायाधीशों के नामों के चयन करने वाली कॉलेजियम व्यवस्था दोष रहित नहीं है और इसमें सुधार की काफी गुंजाइश है।
सब जानते हैं न्यायमूर्ति चेलामेश्वर ने इसके बाद कॉलेजियम की बैठक में शामिल होने की बजाय तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश तीरथ सिंह ठाकुर को पत्र लिखकर न्यायाधीशों के चयन की समूची प्रक्रिया में शामिल इस समिति की निष्पक्षता पर सवाल उठाये थे। उनका तो यह भी आरोप था कि कॉलेजियम व्यवस्था में बहुमत के सदस्य एकजुट होकर फैसले करते हैं और असहमति व्यक्त करने वाले सदस्य न्यायाधीश की राय भी दर्ज नहीं की जाती है।
इस संबंध में शीर्ष अदालत की नौ सदस्यीय संविधान पीठ द्वारा अक्तूबर, 1998 में राष्ट्रपति को दी गयी राय काफी महत्वपूर्ण है। संविधान पीठ ने कहा था कि उन न्यायाधीशों की राय लिखित में होनी चाहिए, जिनसे परामर्श किया गया और उसे प्रधान न्यायाधीश को अपनी राय के साथ सरकार के पास भेजना चाहिए।
न्यायालय ने यह भी कहा था कि प्रधान न्यायाधीश के लिए सरकार के पास सिफारिश करते समय सभी मानदंडों और परामर्श की प्रकिया के लिए इनका पालन जरूरी है। न्यायालय ने कहा था कि इन मानदंडों और परामर्श प्रक्रिया के अनिवार्य बिन्दुओं के पालन के बगैर प्रधान न्यायाधीश द्वारा की गयी सिफारिशें मानने के लिए सरकार बाध्य नहीं है।
ऐसी स्थिति में सवाल उठता है कि कहीं कॉलेजियम की कार्यशैली की वजह से तो सरकार बीच-बीच में कई चयनित नामों पर आपत्ति करते हुए उन्हें पुनर्विचार के लिए कॉलेजियम के पास तो नहीं भेज देती है। वजह चाहे जो भी हो, लेकिन सच्चाई यही है कि एक मई की स्थिति के अनुसार उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों के 385 पद रिक्त हैं। इनमें सबसे अधिक 57 पद इलाहाबाद उच्च न्यायालय में हैं जबकि पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय और पटना उच्च न्यायालय में न्यायाधीशों के 29 पद रिक्त हैं। इसी तरह दिल्ली उच्च न्यायालय में 27 और गुजरात उच्च न्यायालय में न्यायाधीशों के 23 पद रिक्त हैं।
प्रश्न यह है तो फिर क्या हो? उच्चतम न्यायालय के पूर्व न्यायाधीशों ने समय-समय पर कॉलेजियम की कार्यशैली में जिन खामियों की ओर इशारा किया है उसे दूर किया जाये जिससे न्यायाधीश पद के लिए नामों के चयन की प्रक्रिया संदेह से परे रहे। सरकार से भी यह उम्मीद की जा सकती है कि वह कॉलेजियम द्वारा नियुक्तियों के लिए भेजे गये नामों को लंबे समय तक दबाकर रखने की बजाय उन पर यथाशीघ्र निर्णय ले ताकि उच्च न्यायालय में लंबित मुकदमों के तेजी से निपटारे का काम प्रभावित न हो।
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।