अब कोरोना के निमित्त लॉक डाउन होना और अनलॉक होना एक वैश्विक चरित्र होता जा रहा है। इसके साथ सेनेटाईजेशन,मास्क और अनेक बार हस्त प्रक्षालन, फिजिकल दिस्टेंसिंग जीवन की अनिवार्यता होती जा रही है।जब तक इसकी कोई औषधि टीका नहीं आता। यह सब वैसा ही हो रहा है जैसे पॉल हर्मन मुलर ने किया था।कीटनाशक के तौर पर डी डी टी का इस्तेमाल। स्विटजरलैंड के एक केमिस्ट पॉल हर्मन मुलर ने दूसरे विश्वयुद्ध से ठीक पहले डी डी टी का अविष्कार किया था। उस वक्त इसे टाइफस और मलेरिया जैसी घातक और जानलेवा बीमारियों का प्रसार रोकने वाला माना जाता था।
युद्ध के बाद इसे जादुई रसायन कहकर पुकारा जाने लगा। दूसरे विश्वयुद्ध के बाद 20 वर्ष की अवधि में लाखों टन डी डी टी का उत्पादन हुआ और दुनिया भर में इसका इस्तेमाल कृषि क्षेत्र के कीटों पर नियंत्रण करने में किया गया। इसके बाद विश्व स्वास्थ्य संगठन ने डी डी टी को दुनिया भर में मलेरिया उन्मूलन के लिए अपनाया और यह अनुशंसा भी की कि मामूली मात्रा में डी डी टी लोगों के घरों में इस्तेमाल करने से उन मच्छरों से निजात मिलेगी जो मलेरिया पैरासाइट के वाहक होते हैं। ऐसा ही अब सेनेटाईजर के साथ हो रहा है अधिक उपयोग से त्वचा पर दुष्प्रभाव सामने आने लगा है। कुछ सालों के बाद यह रसायन हमारे गुणसूत्र में होगा, जैसे अब डी डी टी से मच्छर नहीं मरते वैसे ही कोरोना वायरस पर सेनेटाईजर का प्रभाव नहीं होगा।
विश्व में तमाम तकनीकी नवाचारों को आधुनिकता और प्रगति का उदाहरण माना जाता है जो कभी पीछे नहीं पलटते लेकिन इतिहास पर करीबी नजर डालें तो पता चलता है कि यह बात हमेशा सही नहीं होती। भारत में जब यह अभियान शुरू हुआ तब हर वर्ष मलेरिया से करीब 5 लाख लोगों की मौत हो जाती थी। अगले १० वर्ष में देश में मलेरिया से होने वाली मौतों का सिलसिला थम सा गया। इसके बाद तो कृत्रिम कीटनाशकों और रसायनों के इस्तेमाल को वैज्ञानिक प्रगति की तरह देखा जाने लगा। इसी पर रोशनी डालती हुई एक किताब लॉक डाउन में इंटरनेट पर मिली।
रेचल कार्सन की पुस्तक, साइलेंट स्प्रिंग। इस पुस्तक ने बताया कि कैसे एक बार डी डी टी का छिड़काव किए जाने के बाद यह पर्यावरण में बना रहता है और कैसे खाद्य शृंखला में यह एक प्रजाति से दूसरी प्रजाति में पहुंचता हुआ उन्हें नष्ट करने का काम करता है। इस पुस्तक को पर्यावरण आंदोलन की शुरुआत करने का श्रेय दिया जाता है। इसके चलते अमेरिका तथा अन्य सरकारों ने सन 1972 में डी डी टी पर प्रतिबंध लगा दिया। डीडीटी का इस्तेमाल खत्म होने पर मलेरिया ने फिर से वापसी की और एक बार फिर लाखों लोग इसकी वजह से मरने लगे। इनमें ज्यादातर अफ्रीकी देशों के बच्चे थे। डी डी टी और ऐसे ही अन्य कृत्रिम रसायन दोबारा इस्तेमाल होने लगे हैं, लेकिन कार्सन के आंदोलन ने पर्यावरण आंदोलन को गति प्रदान कर दी थी और यही कारण था आने वाले दिनों में जैविक खानपान का उदय हुआ। जैसा कि हम देख सकते हैं जटिल तकनीकी और सामाजिक प्रक्रिया भी नई तकनीक के उदय और उसके पराभव में अपनी भूमिका निभाती है।
अब कोवड-19 के साथ हो रहा है। देश विदेश में की जा रही सारी खोजों और टीके के मूल में रसायन है। सेनेटाइजर और अन्य वायरस नाशक का मूल भी यही है। भारत की पद्धति रसायन मुक्त और प्राकृतिक है। पर यह बचाव की पद्धति है निदान और उपचार की नहीं। भारत में शोध की प्रणालियाँ दक्षिण भारत के राज्यों यथा केरल, तमिलनाडू में हैं पर उन्हें पश्चिम की मान्यता नहीं है। भारत के विभिन्न भागों में पाई जाने वाली जड़ी-बूटी प्राकृतिक प्रकोप से निबटने में कारगर है। कोरोना के बारे में विश्व में अभी यह तय नहीं है, इसका उद्गम किसी रीति से हुआ है, अभी तो विश्व डी डी टी की तरह रसायन को धडल्ले से गले लगा रहा है।
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।